Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 114
________________ आशाप्रेमस्तुतिः आशे! त्वं शक्तिरूपाऽसि काम्यसिद्धिप्रदायिनी । संयुक्ता हि गिरीशेन मुक्तिसौख्यविधायिनी ।। ७० ।। हे आशे ! तुम सभी की कामना पूर्ण करनेवाली शक्तिस्वरूपा हो, मुक्तिरूप सुख देनेवाली हो, भगवान् शंकर से युक्त हो। ।।७०।। आशे ! त्वमेव सर्वेषां काव्यानां प्रकृतिः परा । कवीन्द्रा ये भजन्ते त्वां रससिद्धा भवन्ति ते।।७१।। हे आशे ! तुम ही सभी काव्यों का मूल स्फुरण केन्द्र हो, जो कवि तुम्हारा ध्यान करते हैं वे निश्चित ही भावुक होते हैं । । । ७१ ।। आशे! तवैव संसर्गादहं सौख्यमुपागतः । कलिना कालरूपेण बाधितो न कदाचन।।७२।। १०१ हे आशे ! तुम्हारे ही संसर्ग से मैंने सुख प्राप्त किया और कलिरूप काल भी मुझे नहीं रोक सका। ।।७२।। आशे ! त्वां हृदि संस्थाप्य ज्ञानमार्गे प्रवर्तनात् । जायते मनसस्स्थैर्यं चिदानन्दोऽपि सत्वरम् ।।७३।। हे आशे! तुम्हे हृदय में स्थापित करके ज्ञानमार्ग में प्रवृत्त होने पर चित्त स्थिर हो जाता है तथा चिदानन्द भी शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। ।।७३।। संसारप्रीतिभङ्गाय सामरस्यविधायकम्। आशे ! प्रतिक्षणं कुर्वे कीर्तनं तव मुक्तिदम् ||७४।। हे आशे! संसार के मोहभंग के लिए तथा समता के लिये मैं तुम्हारे मुक्तिदायक नाम का कीर्तन अहर्निश करता हूँ। ।।७४ || सामरस्यात्सदैवाशे ! जीवन्मुक्तो हि साधकः । वर्तते देहमध्येऽपि घृतकुम्भे यथा जलम् ।।७५।। आशे! समभाव से साधक जीवन्मुक्त हो जाता है, शरीर में भी आत्मा निर्लिप्तभाव से रहता है जैसे घी के घडे में जल होता है। ।। ७५ ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145