Book Title: Yogkalpalata
Author(s): Girish Parmanand Kapadia
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 103
________________ योगकल्पलता आशे! त्वदीयदेहस्य स्तोतुं लावण्यमद्भुतम्। प्रवृत्ताः कवयो जोषमुपमानं विना स्थिताः।।६।। हे आशे! तुम्हारे शरीर के अद्भुत लावण्य की स्तुति करने के लिए कवि लोग प्रवृत्त हुए किंतु उपमान के विना उनका आनन्द थम सा गया। ।।६।। आशे! त्वां भावतो दृष्ट्वा गिरीशोऽपि विमोहितः। प्रियतामग्नचित्तेन जायते ध्यानतत्परः।।७।। हे आशे! गिरीश (शंकर) भी तुझे भाव से देखकर मुग्ध हो गये और उनका चित्त तेरे प्रेम में इतना डूब गया कि वे ध्यान में एकाग्र हो गये। ।।७।। विलासैर्विविधैर्मन्ये कामप्रीतिविधायकैः। आशे! त्वमेव मच्चित्ते रमसे परितुष्टये।।८।। हे आशे! मेरा तो मानना है कि इच्छा और प्रेम को विधान करने वाली तुम ही अनेक हावभावों से मेरे चित्त में मेरे संतोष के लिए रमण करती हो। ।।८।। आशे! हृन्मेलनं सम्यक् सामरस्यं यदुच्यते। तस्यैवानुभवान्मन्ये दृढानुरागसम्भवः।।९।। हे आशे! हृदय का मिलन जो समरसता कहा जाता है, उसी के अनुभव से दृढ अनुराग उत्पन्न होता है, ऐसा मेरा मानना है। ।।९।। कुरुषे मयि निर्व्याजं त्वमेव प्रेम सन्ततम्। तस्मादाशे! स्तुतिस्तेऽपि मम क्लेशविनाशिनी।।१०।। हे आशे! तुम हमेशा मुझ से निश्छल प्रेम करती हो, इसलिए तुम्हारी स्तुति मेरे मनःसंताप को दूर करनेवाली है। ।।१०।। आशे! प्राणप्रयोगेण सामरस्यमुपागतम्। प्रेम्णा त्वय्येव संसक्तं जायते विमलं मनः।।११।। हे आशे! प्राणायाम करने से मेरा मन समरसता को प्राप्त हुआ, अतः प्रेम के कारण मेरा निर्मल मन तुम में ही लीन हो जाता है। ।।११।।

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