Book Title: Yogdarshan Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Sukhlal Sanghavi View full book textPage 8
________________ (५) वना पृष्ठ ५९ परके “ आचार्य हरिभद्रकी योगमार्गमें नवीन दिशा" नामक पेरेकी ओर खींचते हैं। ___ योगविंशिकाकी योगवस्तुका स्थूल परिचय तो पाठक वहींसे कर लेवे, पर उसमें एक सामाजिक परिस्थितिका चित्रण है जिसका निर्देश यहाँ करना उपयुक्त है. हर एक देश, हर एक जाति और हर एक समाजमें धार्मिक गुरुओंकी तरह धर्मधूत गुरुओंकी भी कमी नहीं होती। वैसे नामधारी गुरू भोले शिष्योंको धर्मनाशका भय दिखा कर धर्मरक्षाके निमित्त अपने मनमाने ढंगसे धर्मक्रियाका उपदेश देते हैं और धर्मकी ओटमें शास्त्रविरुद्ध व्यवहारका प्रवर्तन कराया करते हैं, ऐसे धर्मोंगी गुरुओंकी खबर जैसे आवश्यकनियुक्तिमें श्रीभद्रबाहुस्वामीने ली है वैसे बहुत संक्षेपमें पर मार्मिक रीतिसे योगविंशिकामें भी ली गई है । उसमें वैसे पाखंडिओंको संबोधित करके कहा गया है कि "संघ या जैनतीर्थ मनमाने ढंगसे चलनेवाले मनुष्योंके समुदाय मात्रका नाम नहीं है, ऐसा समुदाय तो संघ नहीं किन्तु हडिओंका ढेर मात्र है । सञ्चा जैन-तीर्थ या महाजन तो शास्त्रानुकूल चलने बाला एक व्यक्ति भी हो सकता है। इसलिए तीर्थरक्षाके नामसे अशुद्ध प्रथाको जारी रखना यही वास्तवमें तीर्थनाश है, क्योंकि शुद्ध धर्मप्रथाका नाम ही तीर्थ है जो अशुद्ध धर्मप्रथासे नष्ट हो जाता है। इसके सिवाय योगविशिकाके अन्तिम भागमें रूपी, अरूपी ध्यानका भी अच्छा वर्णन है । यह ग्रन्थ छोटा होनेसे इसमें जो कुछ वर्णन है वह संक्षिप्त ही है, पर इसकी संस्कृत टीका जो इस ग्रन्थके साथ ही दे दी गई है वह बहुत । १ देखो वंदनकनियुक्ति गाथा. ११०९ से ११९३ ।Page Navigation
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