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इनके बनाये हुए जो '१४४४' ग्रन्थ कहे जाते हैं वे सब उपलब्ध नहीं हैं परन्तु आज जितने उपलब्ध हैं वे भी हमारे लिए तो सारी जिन्दगी तक मनन करने और शास्त्रीय प्रत्येक विषयका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए पर्याप्त हैं।
__ यशोविजय-ये विक्रमकी सत्रहवीं, अठारहवीं शताब्दीमें हुए हैं। इनका इतिहास अभीतक जो कुछ प्रकाशित हुआ है चह पर्याप्त नहीं है। इनके विशिष्ट इतिहासके लिए इनके सभी ग्रन्थोंका सांगोपांग बारीकीके साथ अवलोकन आवश्यक है। इसके लिए समय और स्वास्थ्य चाहिए जो अभी तो हमारे भाग्यमें नहीं है पर कभी इस कामकी तैयारी करनेकी ओर वहुत लक्ष्य रहता है। अस्तु अभी तो वाचक-यशोविजयका परि'चय इतनेहीमें कर लेना चाहिए कि उनकी सी समन्वयशक्ति रखनेवाला, जैन जैनेतर मौलिक ग्रन्थोंका गहरा दोहन करनेबाला, प्रत्येक विषयकी तह तक पहुँच कर उस पर समभावपूर्वक अपना स्पष्ट मन्तव्य प्रकाशित करनेवाला, शास्त्रीय व लौकिक भाषामें विविध साहित्य रच कर अपने सरल और कठिन विचारोंको सब जिज्ञासु तक पहुंचानेकी चेष्टा करनेवाला और सम्प्रदायमें रह कर भी सम्प्रदायके बंधनकी परवा न कर जो कुछ उचित जान पडा उस पर निर्भयता पूर्वक लिखनेवाला, केवल श्वेताम्बर, दिगंबर समाजमें ही नहीं बल्कि जैनेतर समाजमें भी उनका सा कोई विशिष्ट विद्वान अभी तक हमारे ध्यानमें नहीं आया। पाठक स्मरणमें रक्खें यह अत्युक्ति नहीं है। हमने उपाध्यायजीके और दूसरे विद्वानोंके ग्रन्थोंका अभीतक जो अल्प मात्र अवलोकन किया है उसके आधार पर तोल नापकर ऊपरके वाक्य लिखे हैं। निःसन्देह श्वेताम्बर और दिगम्बर समाजमें अनेक बहुश्रुत विद्वान् हो गये हैं, वैदिक तथा बौद्ध सम्प्रदायमें भी प्रचंड