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स्वकथ्य
जब अश्रव्य का श्रवण, अदृश्य का दर्शन एवं अज्ञात को ज्ञात कराया जाता है तब वे क्षण जीवन की अमूल्य धरोहर बनकर आनंद के मूर्तरूप बन जाते हैं । आत्मद्रष्टा पुरुषों की वाणी सत्य, तथ्य एवं रहस्य को उजागर करने वाली होती है । वे जो कुछ कहते हैं जीकर कहते हैं इसीलिए उनके कथन में अकृत्रिमता, प्रभावोत्पादकता एवं सौंदर्य का निवास होता है । उनके वचन मंगलकारी, कल्याणकारी होते हैं, स्वार्थी नहीं तभी तो वे योगक्षेम के सूत्र बन जाते हैं ।
प्रस्तुत कृति में सन्त-वचनों का संकलन किया है, इसका प्रेरक रहा है 'योगक्षेम वर्ष' । तेरापंथ धर्मसंघ में अमृत पुरुष आचार्य श्री तुलसी की ७५ वीं वर्षगांठ पर समायोजित 'योगक्षेम वर्ष' अध्यात्म क्रान्ति का युगीन उदाहरण है । जैन विश्व भारती लाडनूं के प्रांगण की जो छटा सन् १६८६ में देखने को मिली, वह पहले कभी नहीं । श्रद्धेय आचार्य श्री, युवाचार्य श्री एवं महाश्रमणीजी के सान्निध्य में ज्ञान की निर्मल धारा, अध्यात्म का जो अतुल रस बरसा, उसका स्पर्श पहले कभी नहीं किया । उसी अपूर्व ज्ञानामृत को मैंने सूत्र रूप में धारण करने का प्रयत्न किया। पूरे वर्ष भर की प्रवचन-माला से सूक्ति रूप में बिन्दुओं को चुना तथा साथ में कुछ सवचनों का गुंफन किया है। छोटे-छोटे वाक्य जीवन की गहनता को सरलता से समझा जाते हैं, इसी अभिरुचि को मैंने इस पुस्तिका में प्रकट किया है । इनका वाचन - पाचन पवित्र जीवन शैली के निर्माण में सहकार होगा ।
अध्यात्म के विभिन्न प्रयोगों का रसास्वादन कर नये-नये अनुभवों से गुजरने में मुझे सदा से रुचि, उत्साह रहता आया है । मुझे यह प्रेरणा परम श्रद्धेय गुरुदेव के उपपात में मिलती है, उनकी कृपा से मैं उसे प्रायोगिक रूप देती हूं तथा उसकी संयोजना में पूरापूरा सहयोग अपने माता-पिता तथा परिवार का मिलता है । योग-क्षेम वर्ष के दीवट पर योगक्षेम एवं संघपुरुष चिरायु हो — इस
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