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(२)
जिन महानुभावों को " श्वेतवस्त्र " नाम मात्र से ही अपना मंतव्य प्रबल करना है, उन को परावर्तित वर्णवालों से विरोद्ध करना पडता है । इस बिरोद्धभाव की शांति के लिये शास्त्रों के प्रमाण दिये जांय तभी विरुद्धता की आहूती होगी वरना अशांति रहना संभव है । अतएव शास्त्रों के ज्ञाता मुनिवर्य, आचार्यवर्य, किंवा अन्य साक्षरों की सेवामें लिखा गया कि क्या इस विषय के प्रमाण मुद्रित कराने में हानि है ? उत्तर यही मिला कि भवभीरु आत्मा को शांति के लिये शास्त्रों के पाठ बताना लाभदाइ हैं, अतएव यथा शक्ति प्रयत्न करने से तद् विषयक जो साहित्य प्राप्त हुवा है उस को जन समाज के समक्ष प्रगट करना योग्य है ।
प्रमाण १
आचाराङ्ग, भुतस्कन्ध दूसरा, प्रथम चूलिका, वस्त्रैषणाध्ययन पांचमा, प्रथम उद्देषे में पाठ है कि
से जं पुण वत्थं जाणिज्जा - जंगियं वा भंगियं वा साणयं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तूलकडे वा तहप्पगारं वत्थं वा धारेज्जा ( सू० ३६४ )
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भावार्थ - इस सूत्र में ( जंगिय ) उंट के
रोम से उत्पन्न होने
से पैदा होता है ।
वाला वस्त्र (भंगिक) जो विकलेन्द्रिय की लार ( साणय ) सण से जो बल बनाये जाते हैं जिन्हें सणीया कहते हैं.
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