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उसे धारण करसक्ता है। एसी स्पष्ट आज्ञा दी है। और तद् विषयकश्रीमान् टीकाकार शिलङ्काचार्यजी माहाराज भी स्पष्ट फरमाते हैं.
प्रमाण ३
आचारांग, दूसरा भुतस्कंध, प्रथम चूलिका, पांचवा वस्त्रैषणा, अध्ययन, प्रथम उद्देषा.
से भि० से जं० असंजए भिक्खुपडियाए कीयं वा धोयं वा रतं वा घडं वा मठ्ठे वा संपधूमियंवा तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव नो०, अह पु० पुरिसं० जाय पडिगाहिज्जा (सू०३६७)
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भावार्थ - जो वस्त्र साधुके लिये मौल्य लिया है या, धो लाया है रंग परिवर्तन किया - रंगाया गया है, या धूपाया हो अथवा घीसकर मट्ठार कर तैयार किया हो, एसा वस्त्र दूसरे के उपयोग में आये बिना साधु पुरुष नही लेवें । कैसी अनुपम आज्ञा है, याने रंगाहुवा वस्त्र लेवे, अत्र और प्रमाण क्या चाहिये । इसी सूत्र की टीका में टीकाकार श्रीमान् शिलंकाचार्य माहाराज भी करमाते हैं -
प्रमाण ४
साधुप्रतिज्ञया, साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन क्रीतधौतादिकं वस्त्रमपुरुषान्तर कृतं न प्रतिगृह्णीयात् । पुरुषान्तरस्वीकृतं
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तुगृह्णीयादिति
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