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श्री यशोवि४५७
Ibollezic 18 g
FEEसाठेन, लापनगर.
5228008 eechese-2020 : PVT
पुष्प तीसरा.
मगणधरेन्द्रो जयति ॥
वस्त्रवर्णसिद्धि
REO
संग्राहक-लेखक, सेठ चंदनमलजी नागोरी.
प्रकाशक, श्री सद्गुणप्रसारक मित्र मंडल, पो-छोटी सादडी (मेवाड)
com
प्रथम संस्करण।
१०००
वेतनं वेतनं -
-८-०
र संवत
जैनबन्धु प्रिं. प्रेस, इंदौर.
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भावना मला विषि सत लें.. अगनगर,
॥ श्रीगोतम गणधर न्द्री जयति
वस्त्रवर्णसिद्धि.
संग्राहक - लेखक, सेठ चंदनमलजी नागोरी.
प्रकाशक,
श्री सद्गुणप्रसारक मित्र मंडल, पो. छोटी सादडी (मेवाड )
प्रथम संस्करण-1
१०००
वेतनं ०–८–०–– संवत १९८३
जैनबन्धु प्रिं. प्रेस, इंदौर.
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निवेदन.
पाठक गण ! जैन साहित्य संसारमें " बस्त्र वर्ण सिद्धी" नामके विषयमें पुस्तक की वृद्धि हुई है । यह विषय न नो औपदेशिक है, न सामाजिक है, यह तो केवल साधु धर्म और जिसमें भी मुख्यतया वस्त्र वर्ण विषयक विवरणके शास्त्रोक्त प्रमाणोंका चर्चात्मक लेख है । इस संसारको कठिन उपाधियोंसे निवृत्त होकर जिन महानुभावोंने निवृत्तिमाग अंगीकार किया है, उनमें से किसीको “ वस्त्रवर्ण " विषयक शंका उपस्थित हुइ हो, उसका इस पुस्तकमें संपूर्ण समाधान है ।
वर्तमानमें मनुष्योंकी बहुधा ऐसी प्रवर्तीय दृष्टी गत होती हैं, कि जिनके प्रभावसे मनुष्यों में चंचलता, अहंभाव उत्पन्न होकर भवभ्रमणकी तर्फ विशेष प्रवर्तीय हो जाती हैं, और महान अगाध प्रवाहमें गीरनेवाले प्राणी अज्ञान-दुनिके प्रतापसे शीव सुखके अधिकारी नहीं हो सक्ते । क्योंकि उनका हृदय विक्षिप्त होकर भव भ्रमणमें गीर जाता है । आप जानते होंगे कि थोडे समय पूर्व वस्त्रवर्ण विषय चर्चाका जन्म रतलाम ( मालवा ) नगरमें हुवा था और वह इस भाषा-शैलीमें प्रतिपादित था के जिसको महानुभाव-ज्ञानी-साक्षर निन्दात्मक द्रष्टी से देखते थे। तबसे ही मेरे मनमें यह भावना उत्पन्न हुइ थी, के इस विषयको सरल बनानकी कोशीस करना चाहिय । तद. नुसार शास्त्र वेत्ता मुनिवर्यादिसे विज्ञप्ति कीगइ। और जिन मुनि महाराजाओंने इस विषयका साहित्य संपादन किया है,
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उनका उपकार मानता हूं । और विशेष प्रकारसे श्रीमान् आगमोद्धारक आचार्य वर्य श्री सागरानंद सूरीश्वरजी महाराजके शिष्य श्रीमुनिवर्य माणिक्य-सागरजी महाराजको सहसा धन्य बाद है कि जिन्होंने इस कठिन विषयके विशेष प्रमाण मुझे सरल रीत्यानुसार समझाये और मूल पाठोंका भावार्थ लिखाया है । अलबत्ता इस ग्रंथ में पूल पाठ पर से शब्दानुवाद नहीं किया गया है । क्योंकि मैं क्षुद्रात्मा इस विषयका अनधिकारी हूं । अतः पाठकों के समक्ष समझमें आजावें इस तरह भावार्थ मात्रमें विक्षेप न हो यही मंतव्य मुख्यतया रख कर केवल विषय ससष्टकी तर्फ ध्यान रख कर भाषा लिखी गई है । इस विषयकी भाषामें, भाषा सौंदर्य-लालित्य-किंवा भाववाही शब्दों का अभाव है। तदपि शंका समाधान तो योग्य प्रमाण से हो ही जावेगा। तथापि इस विषयमें त्रुटिएं रह जाना कोई बड़ी बात नहीं है । क्योंकि मनुष्य भूल का पात्र होता है । और संभव है कि साक्षरों की द्रष्टीमें वे त्रुटीयें तैर आवें । किन्तु इतना स्मरण रहे कि भावना में त्रुटीयां नहीं है । मेरा मुख्य आशय यह है कि समाजमें निरर्थक वितंडाबादका जन्म न हो। और मुद्रण करना व संशोधन आदिकी जो जो भूलें हों उनके लिये क्षेतन्य. इसके सिवाय और कोइ विशेष ज्ञातव्य विषय उसके लिये साक्षर गण सचित करें ताकि नवीन संस्करणके समय उपयोग किया जाय । शुभमस्तु.
संघ का सेवक, चंदनमल नागोरी.
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विनंती.
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पाठक महोदय ! हमारे. मंडलने पुस्तक प्रकाशित हूँ ₹ कराने का साहस उठाया है उसके फल स्वरूप यह तीसरा है र पुष्प प्रकाशित कराने का सौभाग्य प्राप्त हुवा है । और यह है * आपके कर-कमलोंमे है. आशा है कि समाज हमारे उत्साह है
को अपनाये जायगे शुभम्.
KechaotectureCRECORRECIPES
आपके शुभ चिंतक, श्रीसद् गुण प्रसारक मित्र मंडल के संचालक
RSANSKRUSHIKARI
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भूमिका.
वस्त्र वर्ण सिद्धि पर मेरा विचार.
जैन साहित्य संसार के विशाल क्षेत्रकी महान प्रशादी में से किंचित वक्तव्य लिखनेका सौभाग्य क्षुद्रात्माको प्राप्त हुआ देख, विचार उत्पन्न होता है | विचार क्षेत्र एसा प्रबल प्रतापी कोष है, कि जिसकी शक्तिने अनेकानेक लाभ जन समुदाय प्राप्त करती है । उसही विशाल क्षेत्र की विचार धारा का मनुष्य भी अधिकारी है । अस्तु.
मनुष्य अपने विचार भिन्न भिन्न तरह से प्रदर्शित करसक्ता है. पशुपक्षी आदि अपने विचार प्राप्य शक्तिनुसार संकेतिक हलचल द्वारा किंवा थोडी चुनी हुइ विशिष्ट प्रकार की ध्वनिसे प्रकट करते हैं.
मानव जाति, पशु पक्षिकादिके अतिरिक्त क्रमि कीटकोंमें से बहुधा एसे जंतु है कि वे केवल अपने शारीरिक विशिष्ट अवयवों से ही अपने विचार प्रदर्शित किया करते हैं । किन्तु मनुष्य को अपने विचार प्रदर्शन प्रकट करनेको के एक साधन प्राप्य हैं-प्राप्य हैं इतना ही नहीं किन्तु तथा प्रकार की योजना भी मनुष्य मस्तिष्क में अधि
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[२]
काधिक रुपमें निवास करती है। जिनके प्रताप से मनुष्य को संगीत चित्र लेखन, शिल्प, कला कौशल्य, वक्तव्य किंवा मुदितादि कला प्राप्त होती है, और इस अमूल्य एवं महत्व के साधनों में लेखन कला का साधन बहुधा उत्तम और उंची कक्षामें लेजाने के हेतुभूत माना गया है । समस्त देशों के साहित्योपासक व्यक्ति, ज्ञानाभ्यासी तत्ववेत्ताओं की तर्फ दृष्टि विस्तरित कर देखा जाय तो उक्त कला के प्रभाव से ही उच्चतम श्रेणी पर आरूढ हो, जन समाज के नेता बने हैं। उसको यदि अन्य स्वरूपमें कथन किया जाय तो सर्व कला कौशल्य का मुख्य तत्त्व " विचार श्रेणीकी प्रबलता परही निर्भर है " और इस श्रेणी को प्रदीप्त की जाय तो जिन महान मनोरथों पर मनुष्य विजय करना चाहता है, वही परिणाम उस उद्यमी आत्मा के लिये निकटवर्ती उपस्थित होना असंभव नहीं है। लेकिन बिचार कोष का व्यय इस तरह करना उत्तम होता है कि, पूर्व के महान बिचारज्ञों के बिचार से अपने विचारों की तुलना कर, अपने से अधिक विद्वान द्वारा निर्णय कराना यही मार्ग हितकर प्रतीत होता है.
बिनार श्रेणी के दो भेद मानना भी लाभदायी हैं । प्रथम तो व्यवहारिक दृष्टि से, द्वितीय निश्चियात्मक दृष्टि से. इन दो भेदोंमें प्रथम भेद को पहले विधी पुरःसर जानना चाहिये, क्योंकि इसकी सत्ता चतुर्दश गुणस्थान तक अपना बल बताती है । अतएव यह आदरणीय है। द्वितीय भेद का विवरण ज्ञानीगम्य है.
भूतकालमें भी तत्ववेत्तागण विचार श्रेणी को बहुधा विस्तरित
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किया करते थे. उदाहरण है कि, श्रीमान सिद्धसेन दिवाकर महाराज का कथन था कि " केवलज्ञान व केवलदर्शन एक ही है " और श्रीमान जिनभद्र गणी महाराज कहते थे कि नहीं-केवलज्ञान, केवलदर्शन दो हैं। इस तरह परस्पर प्ररूपणाम विरोध था किन्तु आपसमें वैमनस्य भाव उत्पन्न नहीं होता. एसीभ वना प्रवर्ती से विचार क्षेत्र की वृद्धि की जाय तो अति हितकर होती है.
पाठकगण ! विचार विस्तरित करने का व लोकमत सुशिक्षित बनाने का कार्य उत्तम है, तदपि विचार क्षेत्रको एसा विषमय न बना दिया जाय कि जिससे शासनचको वैमनस्य पैदा होकर हानि पहुंचे.
मेरी यह भावना नहीं है कि हठवादियों की तरह मैं मेरा ही मंतव्य सिद्ध करने को कयैक कलित उपाय की योजना करूं । मैं तो केवल यही चाहता हूं कि जैन जनता बुद्धिवाद के जमानेमें जडवाद की तर्फ न झुक जाय, क्योंकि शास्त्र विरोधी नहीं हैं, न शास्त्रों में विरोध है । विरोध तो केवल अपनी अहंमान्यता पर ही आधार रखता है, और यही भाव मनुष्य जीवन को बिगाड देता है। यह भाव एसा है कि जिससे किंचित मात्र कथन पर पर्वत जितना स्वरूप खडा करने वाले निंदक बनते हैं । कि जिसको बुधिमान वेदते नहीं हैं किन्तु निन्दात्मक दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि मनुष्य जो मद में आकर यद्वा तद्वा का उपयोग कर कराके आनंदित होता है, वह मानव प्रकृति से मित्र है । और भिन्नापेक्षा कथन होने से विकल्प पैदा करता है, विकल्प से विकलता उत्पन्न होती है विकल्पता से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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[४] उपयोग हीन बनते हैं और वह अपने पद से च्युत होजाते हैं. और होना ही चाहिये. क्योंकि मद, अहंता, अभिमान, यह एसा भाव है कि जब मनुष्य के शरीरमें उत्पन्न होता है तब वह अपने उच्च पद से भ्रष्ट होकर निकृष्ट स्थान की स्थिति पैदा करता है । सच है कार्य के साथ उसका फल, प्रयत्न के साथ में परिणाम, आघात के सामने प्रत्याघात, और भावना के सामने उसका बदला सामने ही खडा होता है । अतएव इन उपरोक्त दोषों से दूषित न बनकर विचार क्षेत्रमें प्रवेश किया जाय तो विशेष हितकर है।
इतनी दीर्घ और मन-मोहक भूमिका लिखने का यही हेतु है कि विचार ही मनुष्य के अधोगति व उर्ध्वगति लेजाने में सहायक है। अतएव क्षुद्रात्मा को कहीं एसा भाव उत्पन्न न होजायं, कि मेरा ही मंतव्य प्रमाणिक और ठीक है अन्य का नहीं ! अस्तु.
निवेदक,
चंदनमल नागोरी, सु. छोटी सादडी (मेवाड)
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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
वस्त्र वर्ण सिद्धी.
मालवा के अंतर्गत महान प्रभावशाली माहाराजा विक्रमादित्य की पुन्य प्रपूर्ण भूमि उज्जयनी नगरी के समीप प्रख्यात शहर रतलाम ( रत्नपुरी) में वस्त्र वर्ण निर्णय सम्बंधी चर्चा का जन्म हुवा, और वह एसे स्वरूपमें निर्वाह करने लगा कि जो जैन अजैन साक्षरों की दृष्टी में घृणास्पद होगया, यहां तक कि प्रतिष्ठित राज्य कर्मचारियों ने प्रजा के हितार्थ इस धार्मिक-चरण करणानुयोग चर्चा को वितंडवाद समाज बंद करने की चेष्टा की, आश्चर्य है ! महावृत के शोभास्पद वस्त्र वर्ण विवाद का अमानुषी स्वरुप ?
मेने यह विचार किया कि पुरातन प्रर्वती के प्रमाण क्या आगमों में नहीं है ? कि जिससे सांप्रत समाज में एसी चर्चा का जन्म हुवा ? तो यही परिणाम आया कि प्रमाण तो विशेष रूप में प्रतिपादित हैं किन्तु मान्यता को वश करने के साधन प्रायः लब्ध नहीं है । तभी इम की खोजना में साहित्य प्रेमी समाज मग्न है, अगर सौचा जायतो श्रीमान् अनुयोगाचार्य सत्य विजयजी आदि शासन प्रेमी महानुभावों ने वस्त्र वर्ण परिवर्तन किया है, और समाज शास्त्रोत समझ समाज हित के लिये तद् विषयक प्रवर्ती की. अब
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(२)
जिन महानुभावों को " श्वेतवस्त्र " नाम मात्र से ही अपना मंतव्य प्रबल करना है, उन को परावर्तित वर्णवालों से विरोद्ध करना पडता है । इस बिरोद्धभाव की शांति के लिये शास्त्रों के प्रमाण दिये जांय तभी विरुद्धता की आहूती होगी वरना अशांति रहना संभव है । अतएव शास्त्रों के ज्ञाता मुनिवर्य, आचार्यवर्य, किंवा अन्य साक्षरों की सेवामें लिखा गया कि क्या इस विषय के प्रमाण मुद्रित कराने में हानि है ? उत्तर यही मिला कि भवभीरु आत्मा को शांति के लिये शास्त्रों के पाठ बताना लाभदाइ हैं, अतएव यथा शक्ति प्रयत्न करने से तद् विषयक जो साहित्य प्राप्त हुवा है उस को जन समाज के समक्ष प्रगट करना योग्य है ।
प्रमाण १
आचाराङ्ग, भुतस्कन्ध दूसरा, प्रथम चूलिका, वस्त्रैषणाध्ययन पांचमा, प्रथम उद्देषे में पाठ है कि
से जं पुण वत्थं जाणिज्जा - जंगियं वा भंगियं वा साणयं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तूलकडे वा तहप्पगारं वत्थं वा धारेज्जा ( सू० ३६४ )
-
भावार्थ - इस सूत्र में ( जंगिय ) उंट के
रोम से उत्पन्न होने
से पैदा होता है ।
वाला वस्त्र (भंगिक) जो विकलेन्द्रिय की लार ( साणय ) सण से जो बल बनाये जाते हैं जिन्हें सणीया कहते हैं.
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( ३ )
इसी तरह से वल्कल से बना हुवा, ताड आदि पत्रों के मिश्रण से बना हुवा, कपास से पैदा होने वाला और अर्कादि के सूत्र से उत्पन्न हो, वह बम्र धारण करने की आज्ञा दी । अब विपक्ष व्यक्ति क्या उंट की रोमराय, या सण की स्वयं स्थिती को
त बना सकेंगे ? कदापि नही, तो यही सारांश निकलता है कि श्वेत के सिवाय भी वस्त्र कल्पनीय है । इसी प्रमाण के हेतु भूत टीकाकार भी लिखते हैं कि
प्रमाण २
66
स भिक्षुरभिकांक्षेद् वस्त्रमन्वेष्टुं तत्र यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयात्, तद्यथा-- जंगियंति, जङ्गमोष्ट्राचूर्णानिष्पन्नं, ' तथा ' भंगियंति नानाभङ्गिकविकलेन्द्रियलालानिष्पन्नं, तथा 'साणयं ' ति सणबल्कलनिष्पन्नं 'पोत्तगं' ति ताड्यादिपत्रसंघातनिष्पन्नं 'खोमियंति' कार्पासिकं 'तूलकडं' ति अर्कादितूलनिष्पन्नम्, एवं तथाप्रकार मन्यदपि वस्त्रं धारयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः ॥ (इति)
श्रीमान् टीकाकार भगवन आज्ञा करते हैं कि वस्त्र लेनेकी इच्छा वाला · साधु तलाश करे और उसको उंटादि के रोमराय, विकलेन्द्रिय लार, सण वल्कल, ताड्य पत्र, कर्पास, अर्कादि से बना हुवा वस्त्र मालूम हो जाय किंवा वैसाही यदि दुसरा वस्त्र है तो
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(४)
उसे धारण करसक्ता है। एसी स्पष्ट आज्ञा दी है। और तद् विषयकश्रीमान् टीकाकार शिलङ्काचार्यजी माहाराज भी स्पष्ट फरमाते हैं.
प्रमाण ३
आचारांग, दूसरा भुतस्कंध, प्रथम चूलिका, पांचवा वस्त्रैषणा, अध्ययन, प्रथम उद्देषा.
से भि० से जं० असंजए भिक्खुपडियाए कीयं वा धोयं वा रतं वा घडं वा मठ्ठे वा संपधूमियंवा तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव नो०, अह पु० पुरिसं० जाय पडिगाहिज्जा (सू०३६७)
i
भावार्थ - जो वस्त्र साधुके लिये मौल्य लिया है या, धो लाया है रंग परिवर्तन किया - रंगाया गया है, या धूपाया हो अथवा घीसकर मट्ठार कर तैयार किया हो, एसा वस्त्र दूसरे के उपयोग में आये बिना साधु पुरुष नही लेवें । कैसी अनुपम आज्ञा है, याने रंगाहुवा वस्त्र लेवे, अत्र और प्रमाण क्या चाहिये । इसी सूत्र की टीका में टीकाकार श्रीमान् शिलंकाचार्य माहाराज भी करमाते हैं -
प्रमाण ४
साधुप्रतिज्ञया, साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन क्रीतधौतादिकं वस्त्रमपुरुषान्तर कृतं न प्रतिगृह्णीयात् । पुरुषान्तरस्वीकृतं
9"
तुगृह्णीयादिति
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(५)
भावार्थ-साधु के उद्देपसे विक्रय लिया हुवा वस्त्र किंवा धोकर रंगवाकर, या और विशेषता प्राप्त कर साधु माहाराज प्रति लाभने के निमितही सव तैयारियां की हो एमा वस्त्र नहीं लेनेका कल्प है, और वह दुसरे पुरुष के उपयोग में आयाहो तो लेना कल्पनीय है। कहा है कि
प्रमाण ५ " से मि० नो वण्णमंताइ वत्थाई विवन्नाई करेजा"
भावार्थ-इस सूत्र का यह है कि साधु अच्छे वर्ण याने रंग वाले बलका वर्णन बिगाडे इसपर टीकाकार कहते हैं कि
प्रमाण ६ स भिक्षुकः वर्णवंति वस्त्राणि चौरादिभयात् नो विगतवर्णानि कुर्यात्.
भावार्थ-प्रभुकी आमा पालक साधु वस्त्र वर्ण को तस्करादि भय से परिवर्तन न करे, प्रथम तो एसे वस्त्रही नही लेना. यदि ले लिया है तो वर्ग परिवर्तन नही करना, इस कथन से सिद्ध होता है कि अच्छे वर्ण वाले वस्त्र साधु ग्रहण करें किन्तु रंग न पलटे, एसी शास्त्रकार माहाराज की आज्ञा सत्रों में है, साधुओं के लिये कथन करनमें मत्रकार व टीकाकारों ने कमी नहीं की है. साधु
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(६)
शब्दही इतनी महत्वता वाला है, कि सुनते ही भव्यात्मा को प्रेम उत्पन्न हो जाता है. और साध, यति निग्रन्थ. मुनि. संयमि, संत आदि एकार्थी पर्यय वाचक शब्द हैं, और एसेही क्रिया पात्रों को आज्ञा पालन करने में शंका नही होती, बाकी यूं तो साधु संज्ञाके आचार पांच प्रकार बताये हैं. उनका विवरण प्रसंगोपात करना हितकर है।
प्रथम पुलाक, द्वितीय निग्रन्थ, वतिय स्नातक, चतुर्थ बकुश, और पंचम कुशील, इन पांच प्रकार के साधुओं में प्रथम, द्वितीय, और ऋतिय, प्रकार के साधु तो इस कालमें इधर होते ही नही हैं, अब रहे दो भेद, बकुश, और कुशील, यह दोनों, शासनमें विद्यमान रहेंगे । और इनही में से शासन रक्षक, और धुरंधर पंडित होंगे. इन दो प्रकार के साधुओं में से वकुश के लिये तत्वार्थ भाष्यकार श्रीमान् उमास्वाति वाचकजी महाराज क्या लिखते हैं देखिये
प्रमाण ७
" बकुशो द्विविधः- उपकरणवकुशः शरीरबकुशश्च, तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुविशेषोपकरणाकांक्षायुक्तो नित्यं तत्पतिसंस्कारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति, शरीरभिष्वक्तचित्तो विभूषार्थ तत्प्रतिसंस्कारसेवी शरीरबकुशः।
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भावार्थ, श्रीमान वाचकजी माहाराज का कथन है कि बकुश दो प्रकार के होते हैं, ( १ ) उपकरण बकुश, और ( २ ) शरीर बकुश, इन दो तरह के बकुश में उपकरण बकुश उसको कहते हैं कि, जिसको उपकरणादि विविध सामग्री में विशेष रागहो और वह अधिक मौल्यवान वस्तु ग्रहण करने की चेष्टा किया करे । किया करे इतना ही नही बहुधा विशेष और विशिष्ट प्रकार के उपकरण का संग्रह कर उनके संस्कार में याने समेटना, बांधना, आदि किमिया में ही दत्तचित रहे एसे साधु व्यक्ति को उपकरण बकुश कहते हैं, और देहपर ममत्व किंवा राग रखने वाला, विशेष प्रकार शुश्रुषा रखता हो, शरीरकी कोमलता बताकर तथा प्रकारकी योजना कायम रखनेको तत् पोषक पदार्थों द्वारा शरीर को बनाया करे एसे साधुओं को शरीर बकुश कहते हैं, एसा तत्वार्थ भष्य में सारांश है, और सच है, क्योंकि साधुओं को अपने आत्महित के लिये शरीर परसे मुच्छो त्याग करना लाभदाइ होता है, परिग्रहादि सामग्री भी विशेष रखने की आज्ञा नहीं है, मिथ्या वचन का तो निरंतर प्रतिबंध होता है। इस के अतिरिक्त बलात्कार से लिया हुवा मकान में या मालीक मकान की आज्ञा बिना पंच महाव्रत धारी गण उस आवास में निवास नही कर सक्ते, स्त्रियादि के परिचय वाले घरमें भी; साधु नही ठहर सक्ते, गृहस्थ आदिको रात्रि में दीवारोशनी, की सहायता से पाठ देना या स्वयं अध्ययन करना मना है, त्रियों के साथ प्रतिक्रमण करने की भी आज्ञा सूत्रकार भगवन की नहीं है । इतनी
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________________ zlcPhilo बातों में यदि साधु दूषित बनजावे तो बकु पीत वस्त्र गृहण करने में रंगदार वस्त्र धार lle ! रहता है, एसा इस प्रमाण से सिद्ध की टीका में श्रीमान हरिभद्रसूरिश्वरजी महाराज फरमाते हैं कि प्रमाण 8 बकुशो द्विविधः, उपकरणशरीरभेदात्, तयोरुपकरणबकुश उपकरणे वस्त्रपात्रादौ अभिष्वक्तचित्तः- प्रतिबद्धस्नेहः समुपजाततोषः विविध देशभेदेन वस्त्रं पौण्ड्रवर्धनककाशीकुलकादि पात्रमपि पूरिकगन्धारकप्रतिग्रहकादि विचित्रं रक्तपतिशीतविन्दु" पट्टकादिप्रचितं महाधनं महामूल्यं एवमादिना उपकरणेन युक्तो ममेदं अहपस्य स्वामीत्युपजातमूर्छः पर्याप्तोपकरणोऽपि भूयो बहुविशेषोपकरणकांक्षायुक्तो, बहुः विशेषो यत्र मृदुदृढलक्षणधन निचित " रुचिरवर्णादिः" तादृशोपकरणे लब्धव्ये जातकांक्षो जाताभिलाषः सर्वदा च तस्योपकरणस्य प्रतिसंस्कारः प्रावल्येन दशाबन्धघटिकासंवेष्टनादिकं सेवमानस्तच्छीलः उपकरणवकुशः // भावार्थ-बकुश दो तरह के प्रथम उपकरण बकुश, द्वितीय शरीर बकुश, जिस में प्रथम श्रेणी वाले को वस्त्र पात्रादि में विशेष मूर्छा होती है, और वह पौण्ड वर्धनक-काशी अथवा कुलकादिकं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com