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किया करते थे. उदाहरण है कि, श्रीमान सिद्धसेन दिवाकर महाराज का कथन था कि " केवलज्ञान व केवलदर्शन एक ही है " और श्रीमान जिनभद्र गणी महाराज कहते थे कि नहीं-केवलज्ञान, केवलदर्शन दो हैं। इस तरह परस्पर प्ररूपणाम विरोध था किन्तु आपसमें वैमनस्य भाव उत्पन्न नहीं होता. एसीभ वना प्रवर्ती से विचार क्षेत्र की वृद्धि की जाय तो अति हितकर होती है.
पाठकगण ! विचार विस्तरित करने का व लोकमत सुशिक्षित बनाने का कार्य उत्तम है, तदपि विचार क्षेत्रको एसा विषमय न बना दिया जाय कि जिससे शासनचको वैमनस्य पैदा होकर हानि पहुंचे.
मेरी यह भावना नहीं है कि हठवादियों की तरह मैं मेरा ही मंतव्य सिद्ध करने को कयैक कलित उपाय की योजना करूं । मैं तो केवल यही चाहता हूं कि जैन जनता बुद्धिवाद के जमानेमें जडवाद की तर्फ न झुक जाय, क्योंकि शास्त्र विरोधी नहीं हैं, न शास्त्रों में विरोध है । विरोध तो केवल अपनी अहंमान्यता पर ही आधार रखता है, और यही भाव मनुष्य जीवन को बिगाड देता है। यह भाव एसा है कि जिससे किंचित मात्र कथन पर पर्वत जितना स्वरूप खडा करने वाले निंदक बनते हैं । कि जिसको बुधिमान वेदते नहीं हैं किन्तु निन्दात्मक दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि मनुष्य जो मद में आकर यद्वा तद्वा का उपयोग कर कराके आनंदित होता है, वह मानव प्रकृति से मित्र है । और भिन्नापेक्षा कथन होने से विकल्प पैदा करता है, विकल्प से विकलता उत्पन्न होती है विकल्पता से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com