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उनका उपकार मानता हूं । और विशेष प्रकारसे श्रीमान् आगमोद्धारक आचार्य वर्य श्री सागरानंद सूरीश्वरजी महाराजके शिष्य श्रीमुनिवर्य माणिक्य-सागरजी महाराजको सहसा धन्य बाद है कि जिन्होंने इस कठिन विषयके विशेष प्रमाण मुझे सरल रीत्यानुसार समझाये और मूल पाठोंका भावार्थ लिखाया है । अलबत्ता इस ग्रंथ में पूल पाठ पर से शब्दानुवाद नहीं किया गया है । क्योंकि मैं क्षुद्रात्मा इस विषयका अनधिकारी हूं । अतः पाठकों के समक्ष समझमें आजावें इस तरह भावार्थ मात्रमें विक्षेप न हो यही मंतव्य मुख्यतया रख कर केवल विषय ससष्टकी तर्फ ध्यान रख कर भाषा लिखी गई है । इस विषयकी भाषामें, भाषा सौंदर्य-लालित्य-किंवा भाववाही शब्दों का अभाव है। तदपि शंका समाधान तो योग्य प्रमाण से हो ही जावेगा। तथापि इस विषयमें त्रुटिएं रह जाना कोई बड़ी बात नहीं है । क्योंकि मनुष्य भूल का पात्र होता है । और संभव है कि साक्षरों की द्रष्टीमें वे त्रुटीयें तैर आवें । किन्तु इतना स्मरण रहे कि भावना में त्रुटीयां नहीं है । मेरा मुख्य आशय यह है कि समाजमें निरर्थक वितंडाबादका जन्म न हो। और मुद्रण करना व संशोधन आदिकी जो जो भूलें हों उनके लिये क्षेतन्य. इसके सिवाय और कोइ विशेष ज्ञातव्य विषय उसके लिये साक्षर गण सचित करें ताकि नवीन संस्करणके समय उपयोग किया जाय । शुभमस्तु.
संघ का सेवक, चंदनमल नागोरी.
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