Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri

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Page 11
________________ लाप करती थकी पुत्र प्रत्ये या प्रकारे कहती हवी. "हे जात! तुं अमारे एकज पुत्र डे, अने अमने इष्ट कहेतां वजन, अने कांत कहेतां मनोझ, अने प्रिय कहे* तां प्रियकारी एवो, अने आनरणना करंझिया समान, एटले अमूल्य रत्तुल्य ए वो, अने हृदयने आनंद नत्पन्न करनार एवो, अने नंबराना फूलनी पेठे ऽर्लन एवो तुंअमारे ने. एज कारण माटे कण मात्र पण तारा वियोगने अमे सहन करवाने * समर्थ नथी. ते कारण माटे हे जात! ज्यांसुधी अमे जीवीए त्यांसुधी तुं घरमां रहे. पठी सुखे करीने प्रव्रज्या ग्रहण करजे. एटले दीक्षा लेजे.” त्यार पठी ते कुमार कहेतो हवो. “हे अंब! तमारुं कहे, सत्य डे. पंरतु या मनुष्यनो नव अनेक जन्म जरा मरण रुप, तया शरीर अने मन संबंधि अतिशे फुःख, वेदतु । एटले नोमवq ते रुप उपञ्चे करीने परानव पामेलो एवो, अने अध्रुव कहेतां अशाश्वत एवो; अने संध्या समयनां वादलांना रंग सरखो एवो; अने जलना पत्र * रपोटा सरखो एवो; अने वीजलीना सरखो चंचल एवो; अने सभी जवू, पी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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