Book Title: Vaidik Bhasha Me Prakrit Ke Tattva Author(s): Premsuman Jain, Udaychandra Jain Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 2
________________ २६४ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन में समान रूप से ग्रहण किये गये हैं। 3 ज्यून्स ग्लास ने भी अपने फलांग व्याख्यानों में वैदिक भाषा और प्राकृत के सम्बन्ध को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। इधर गत दो दशकों में जो प्राकृत भाषा पर विभिन्न सेमिनार हुए हैं, उनमें भी आधुनिक विद्वानों में से कुछ ने इस दिशा में प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है ५ इस अवधि में वैदिक भाषा और प्राकृत साहित्य पर जो कार्य सामने आये हैं उनके तुलनात्मक अध्ययन से भी वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व खोज निकालने में सुविधा प्राप्त हुई है। इस तरह उपर्युक्त सामग्री के आधार पर वैदिक भाषा और प्राकृत के सम्बन्ध को सोदाहरण स्पष्ट करने का प्रयत्न किया जा सकता है। यद्यपि संकलित सामग्री और अध्ययन की नई दिशाओं के आधार पर यह विषय एक स्वतन्त्र ग्रंथ का विषय है। किन्तु यहाँ रूपरेखा के रूप में कुछ समानताओं पर ही विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है। वैदिक भाषा प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के प्रतिनिधि ग्रन्थ मूलतः चार वेद हैं। यद्यपि इन चारों वेदों की भाषा में विद्वानों ने कुछ स्तर निश्चित किये हैं, किन्तु उसकी संरचना में प्रायः एकरूपता पायी जाती है। वैदिक विद्वान् और आधुनिक भाषाविद् यह स्वीकार करते हैं कि वेदों की भाषा उस समय में प्रचलित कई लोक भाषाओं का मिला जुला रूप है, जिसे छांदस भाषा के नाम से जाना गया है । छांदस भाषा तत्कालीन जनभाषा का परिष्कृत रूप है। यही तत्त्व वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत साहित्य की भाषा में थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ पाये जाते हैं । अतः भाषाविदों का यह निष्कर्ष है कि वैदिक भाषा और प्राकृत-भाषाएँ किसी एक मूल स्रोत से सम्बन्ध रखती हैं । जो उस समय की जनभाषा रही होगी। प्राचीन भाषा के विकास के मूल में विद्वानों ने तीन देशी विभाषाओं का प्रभाव स्वीकार किया है। (i) उदीच्य ( उत्तरीय विभाषा)। (i) मध्यदेशीय विभाषा । (iii) प्राच्य या पूर्वी विभाषा। इनमें से उदीच्य विभाषा से छांदस भाषा विकसित हुई, जिसमें वैदिक साहित्य लिखा गया है । और प्राच्य या पूर्वी विभाषा से प्राकृतों का विकास हुआ है। सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से देखें तो यह क्रम ठीक प्रतीत होता है कि वेदों को परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21