Book Title: Vaidik Bhasha Me Prakrit Ke Tattva
Author(s): Premsuman Jain, Udaychandra Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 19
________________ २८१ वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व घिष्ण्ये इमे ( ऋ७-७२-३) वन्दामि अज्जवइरं सोमो गौरी अधिश्रितः ( ऋ ९-१२-३ ) रुक्खादो आअओ युस्मै इत् ( ऋ८-१८-१९) देवीए एत्थ अस्मै वा वहतम् ( ऋ८-५-१५) निसा अरो त्वे इत् (ऋ १-२९-६) एओ एत्थ घनसा उ ईमहे ( ऋ१०-६-१०) अहो अच्छरिअं होता न ई यं ( साम ३-७९२ ) गन्ध उडि इन्द्र इ हयां ( साम ३-७२६ ) निसिअरो बहुले उये ( यजु ११-३०-१) रयणी अरो मणु अत्तं सन्दर्भ १. (क) वैदिक व्याकरण डा० रामगोपाल २. (ख) वैदिक व्याकरण मेक्डोनल, अनु-डा० सत्यव्रत शास्त्री, पैरा० ६ त भाषाओं का व्याकरण डा० पिशेल (ख) प्राक त मार्गोपदेशिका पं० बेचरदास दोशी, पृ० ११५ (ग) प्राकृत भाषा डा० पी० बी० पंडित, पृ० १३, वाराणसी १९५४ (घ) प्राकृत भाषाएँ और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान डा० कत्रे, जयपुर १९७२ पृ० ६१-६२ (ङ) प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास डा० नेमिचन्द्र शास्त्री पृ० ४-९ (च) प्राकृत विमर्श डा० सरयूप्रसाद अग्रवाल, लखनऊ, १९७४ पृष्ठ ४४-४८ ३. (क) आर्यभाषा और हिन्दी डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ( प्रथम संस्करण ) पृष्ठ ५२, ६२, ७० (ख) तुलनात्मक पालि-प्राकृत अपभ्रंश व्याकरण डा० सुकुमार सेन, इलाहाबाद १९६९ भूमिका पृ० १-२ रकल प्रामर आफ द अपभ्रंश प्रो० तगारे परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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