Book Title: Vaidik Bhasha Me Prakrit Ke Tattva
Author(s): Premsuman Jain, Udaychandra Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
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वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व
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विहंता ( ऋ १-१७३-५ ) विहंता इच्छंत (ऋ. १-१६१-१४) इच्छंत । भरमाणः ( ऋ१-७२-५) रक्खमाण रक्षमाणः (ऋ १-७२-५) रक्खमाण इच्छमानो ( अथर्व ३-१५-३) इच्छमाणो
राचमाना (ऋ ३-७-५) रोयमाण इसके अतिरिक्त स्त्रीलिंग बनाने के लिए ई प्रत्यय का प्रयोग भी हुआ है। जैसे - भवंती ( अ० ३-१४-६), जीवंती (अ० ३-१४-६), आचरन्ती (ऋ १-१६४-४०) (५४) हेत्वर्थ कृदन्त के प्रत्ययों में प्रायः समानता मिलती है। यथावैदिक संस्कृत
प्राकृत कर्तवे ( वै० प्र० ३-४-९) कर्तुम्
कत्तवे दातुं ( अथर्व ६-१२२-३) दातुम्
दाउं ऐसे ( वै० प्र० ३-४-९) ऐतुम्
एसे वैदिक और प्राकृत दोनों में अनियमित कृदंतों का भी प्रयोग होता है, किन्तु उनके रूपों में भिन्नता है। (५५) संधि रूप वैदिक
प्राकृत सवर्ण दीर्घ संधि इन्द्राग्नी (ऋ १-२१) आयारांग ( आयार अंग) ऐतेनाग्ने (ऋ १-२१-१८) विसमायवो ( विसम आयवो ) नसत्या (ऋ. १-४७-९) दसीसरो ( दहि ईसरो) अत्राह (ऋ१-४८-४) साऊअयं ( साउ उअयं ) शचीय ( ऋ १-५३-३) जेणाहं ( जेण अहं) पेनातरअ ( अथर्व ४-३५-२) बहूदग ( बहु उदग) अपवाद विश्वा अधि (ऋ२-८-५) अ आणंतेण पृथिवी इमं (ऋ २-४१-२०) ण आणामि मनीषा अग्निः ( ऋ१-७०-१) पूषा अविष्टुः ( ऋ १०-२६-९) होइ इह
परिसंवाद-४
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