Book Title: Vaidik Bhasha Me Prakrit Ke Tattva
Author(s): Premsuman Jain, Udaychandra Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 12
________________ २७४ (४०) अल्पप्राण का महाप्राण महऋ १-२२-११) ( ४१ ) समीकरण पक्कृ (ऋ १-६६-२) (४२) स्वरभक्ति अंकिर (यजु १२ - ८- १) सुवर्ग ( तै० ४, २-३ ) तनुवं ( तै० सं० ७-२२-१) (४३ ) शब्द रूपों में समानता यथा वैदिक देवो (ॠ १-१-५) प्रथमा एकवचन देव (ऋ१-१३-११) देवेभिः तृतीया बहुवचन जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन मख, मुख पक्वः अंकार, उत्तम स्वर्गः तन्वम् परिसंवाद -४ प्राकृत में कारकों की कमी तथा उनका आपस में प्रयोग प्रायः देखा जाता है । वेदों में भी चतुर्थी विभक्ति के स्थान में षष्ठी, तृतीया के स्थान पर षष्ठी आदि कारकों का परिवर्तन प्राप्त होता है । इसी तरह नाम रूपों में प्रयुक्त कई प्रत्यय भी प्राकृत और वैदिक में समान हैं । सर्वनामों में भी कई प्रयोग समान देखे जाते हैं । इसी तरह वैदिक में प्राकृत की तरह द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग पाया जाता है । तथा कुछ शब्द विभक्ति रहित भी प्रयुक्त होते हैं । Jain Education International संस्कृत देव : देवैः संस्कृत सो (ऋ० १३,१००, ४) स ( ऋ१३,८२, ४) सः यो (ऋ १३,८१,६) जो (ऋ ७,३३,१२) यः ये (ऋ ५,१९,६) य (ऋ ५,१९,४) य ( ऋ १३,७४, २) मुह पक्को प्राकृत में प्रयुक्त हरिणो, गिरिणो. राइणो, आदि शब्द रूपों की तरह वैदिक में भी सुरणो (ॠ ३ - २९-१४), घर्मणो ( ऋ १ - १६० - १) कर्मणो ( ऋ १-११- ९७) आदि कई रूप प्रयुक्त होते हैं । (४४) सर्वनाम शब्द रूप वैदिक उत्तिम सुवग्गो तणुमं For Private & Personal Use Only प्राकृत देवो, देव देवेह प्राकृत सोस जो, ज, जे www.jainelibrary.org

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