Book Title: Uttaradhyayanani Part 01 And 02
Author(s): Bhavvijay Gani, Harshvijay
Publisher: Vinay Bhakti Sundar Charan Granthmala

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Page 563
________________ उत्तराध्य-2 एव च गुप्तेन्द्रियः, तत एव च गुप्तं-नवगुप्तिसेवनाद्ब्रह्मेति-ब्रह्मचर्य चरितुं शीलमस्येति गुप्तब्रह्मचारी, सदा अप्रमत्तो विहरेदिति सूत्रार्थः॥ अध्य०१६ यनसूत्रम् | मूलम्-कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिहाणा पण्णत्ता ? जे भिक्खू सोच्चा निसम्म है ॥ २६१ ॥ संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरिजा ॥ २॥ इमे & खल्लु ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संव- 21 रबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरिजा ॥ ३ ॥ तंजहा विवित्ताइं सयसणासणाइं सेविज्जा से निग्गंथे, नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवढू से निग्गंथे, तं ४ कहमितिचेत् आयरिआह-निग्गंथस्स खलु इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाइं सेवमाणस्स बंभयारिस्स | | बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिज्जा, भेअंवा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दोह कालिकं वा रोगायक हविजा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा नो इत्थिपसुपंडगसंसत्ताई | सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गंथे ॥ ४॥ व्याख्या-इमे प्रश्ननिर्वचनसूत्रे माग्वत्, तान्येवाह-'तद्यथे'त्युपन्यासे, 'विविक्तानि' स्त्रीपशुपण्डकैरनाकीर्णानि शयनासनानि उपलक्षणत्वात् स्थानानि च सेवेत यः स निर्ग्रन्थो भवतीति शेषः । इत्थमन्वयेनोक्त्वा अल्पमतिविनेयानुग्रहार्थममुमेवार्थ व्यतिरेकत %

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