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चतुर्दशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीका सहितम्
मूलार्थ - जो पुरुष कामभोगों से निवृत्त नहीं हुआ वह चारों दिशाओं में रात दिन परिभ्रमण करता हुआ तप रहा है तथा दूसरों के लिए दूषित प्रवृत्ति करने वाला, धन की गवेषणा करता हुआ जरा और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।
टीका - कुमार कहते हैं कि पिता जी ! कामभोगों की इच्छा वाला जीव, चारों दिशाओं में घूमता है और रात दिन परिताप को प्राप्त होता रहता है अर्थात् चिन्ता रूप अग्नि से जलता हुआ रात दिन शोक में ही निमग्न रहता है ! तथा भोजन के लिए वा अन्य स्वजन सम्बन्धियों के लिए धन की गवेषणा करता है। और असह्य कष्टों को झेलता है । इस प्रकार विदेश में गया हुआ कोई तो वहां ही वृद्ध हो जाता है और कोई तो मृत्यु को ही प्राप्त हो जाता है । इससे सिद्ध हुआ कि ये सब कामभोग दुःखों की ही खान हैं । संसार में ऐसा कोई भी दुःख नहीं कि जो कामभोगादि की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को सहन नहीं करना पड़ता । अतः मुमुक्षु पुरुष के लिए ये कामभोग सर्वथा त्याग देने के योग्य हैं । यहां पर 'अहो' 'रायो' ये दोनों पद आर्ष होने से सप्तमी के अर्थ में प्रयुक्त किए गए हैं
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अब फिर इसी विषय में कहते हैं
इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि,
इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं ।
तं एवमेवं लालप्पमाणं,
हरा हरंति त्ति कह पाओ ॥ १५ ॥
इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति,
इदं च मे च मे
तमेवमेवं
कृत्यमिदमकृत्यम् ।
लालप्यमानं,
हरा हरन्तीति कथं
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प्रमादः ॥१५॥