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प्राक्कथन
साध्वी विनीतप्रज्ञा जी का ‘उत्तराध्ययनसूत्र – एक दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्त्व' ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखते समय मैं असीम आनंद और गौरव महसूस कर रहा हूं ।
अपनी गुरुवर्या पू. साध्वी हेमप्रभा श्री जी की प्रेरणा से लिखा हुआ यह ग्रन्थ अपने आपमें एक अनोखा ग्रन्थरत्न बन गया है ।
भारतीय दर्शन क्षेत्र में जैन दार्शनिकों का अमूल्य योगदान रहा है । वैदिक दर्शन में वेद और उपनिषदों का जो स्थान है, वही जैन दर्शन में आगमों का स्थान है । उत्तराध्ययनसूत्र प्राचीन जैन आगमो में एक विशिष्ट स्थान रखता है और दार्शनिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस शोधकार्य का मुख्य उद्देश्य ही उत्तराध्ययनसूत्र के दार्शनिक पहलुओं पर प्रकाश डालना और वर्तमान संदर्भ में इसमें प्रतिपादित विषयों का महत्त्व और उपादेयता प्रदर्शित करना है ,। हर प्रकरण के अध्ययन से पता चलता है कि यह ग्रंथ साध्वी जी के अत्यंत परिश्रम और तलस्पर्शी अध्ययन का फल है ।
यह ग्रन्थ 'उत्तराध्ययनसूत्र' का एक प्रामाणिक, विश्लेषण है । उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित सभी विषयों का समावेश करके इसमें उनकी मार्मिक व विस्तृत चर्चा की है । प्रथम दो प्रकरणों में जैन आगमों में उत्तराध्ययनसूत्र' का स्थान, इसमें प्रतिपादित विषय, भाषा एवं शैली की चर्चा है । इतना ही नहीं 'उत्तराध्ययनसूत्र' पर वर्तमान हिन्दी और अंग्रेजी में उपलब्ध साहित्य, चूर्णी, शोधलेख, अनुवाद इत्यादि संदर्भ देकर जिज्ञासु और संशोधकों की सहायता की है । आगमों का वर्गीकरण व प्रभेदों की भी विस्तृत चर्चा है । अन्य प्रकरणों में प्रमाणमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, आचार, मोक्ष, समाधिमरण, मनोविज्ञान, शिक्षण अर्थशास्त्र इत्यादि विविध विषयों को सप्रमाण प्रतिपादित किया गया है । इस ग्रन्थ में जैन दर्शन के अनेक सिद्धान्तों का सूक्ष्म विवेचन और जहां जहां आवश्यक है, वहां अन्य भारतीय दर्शन सिद्धान्तों के साथ तुलना भी की गई है । साध्वीजी ने इस ग्रंथ के अंतिम
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