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साध्वी श्री विनीतप्रज्ञा जी ने दो वर्ष की इस दीर्घ अवधि में शोध और अध्ययन के लिये जो कठिन श्रम किया है उसका मै प्रत्यक्ष दर्शी रहा हूं । उन्होंने मूलग्रन्थ और उसकी टीकाओं का तलस्पर्शी अध्ययन तो किया ही, साथ ही तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से भी अनेकानेक ग्रन्थों को खोजा और टटोला है । विनीत प्रज्ञा नाम को सार्थक करते हुए उन्होंने अपनी गवेषणा को व्यापक और तल स्पर्शी दोनों ही बनाने का प्रयत्न किया है । इस सब में उनकी अध्ययन निष्ठा और प्रज्ञापटुता स्वतः ही स्पष्ट है । मेरा दायित्व तो दिशा निर्देशन और परिष्कार तक सीमित रहा है । इस विशाल ग्रन्थ में तुलनात्मक एवं गवेषणात्मक दृष्टि से जो कुछ लिखा गया वह उनके वैदुष्य का प्रतिबिम्ब है । उत्तराध्ययनसूत्र के धर्म, दर्शन, आचार और साधना सभी पक्षों पर उन्होंने दार्शनिक दृष्टि से अपनी कलम चलाई है, यही नहीं समाज दर्शन, आर्थिक दर्शन, राजनैतिक चिन्तन आदि अछूते पक्षों पर उन्होंने कुछ लिखने का साहस किया है । मै साध्वी जी से यह अपेक्षा करता हूं कि वे भविष्य में भी इसी प्रकार परिश्रम पूर्वक अपनी प्रज्ञा का सदुपयोग करते हुए जिनवाणी के अध्ययन, अनुशीलन, गवेषणा और शोध में लगी रहेंगी।
उनका यह सद्भाग्य है कि उन्हें प्रेरणा-प्रदात्री, प्रज्ञानिधि, गुरुवर्या के साथ-साथ प्रज्ञा सम्पन्न एवं परिश्रमी साध्वी मण्डल का सहयोग प्राप्त है । वे सत्साहित्य का सृजन करते हुए मानव कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करती रहें ।
मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है कि चेन्नई का श्री संघ इस शोध ग्रन्थ का प्रकाशन कर उसे जन-जन के लिए सहज सुलभ बना रहा है । उनकी यह धर्म प्रभावना अनुमोदनीय है ।
कार्तिकपूर्णिमा शाजापुर (म.प्र.)
डॉ. सागरमल जैन .. पूर्व निर्देशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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