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प्रस्तावना
नामको कलंकित तथा जैनशासनको मलिन करनेवाला है, सिरसे पैर तक जाली है और विषमिश्रित भोजनके समान त्याज्य है। इसका अनुवाद भी अधिक निरंकुशता, धूर्तता एवं अर्थके अनर्थको लिये हुए है। ये सब बातें इस ग्रन्थके परीक्षा-लेखोंमें दिनकर-प्रकाशकी तरह स्पष्ट करके बतलाई गई हैं। परीक्षा-लेव जैनजगत' में १६ दिसम्बर सन १६३१ के अङ्कसे प्रारम्भ होकर पहली फर्वरी सन् १९३३ तकके अङ्कोंमें प्रकट हुए थे, जिन्हें बादको जनवरी सन १९३४ में ला जौहरीमलजी जैन सर्राफ, दरीबाकलाँ देहलीने, मुझसे ही संशोधित कराकर, पुस्तकरूप में प्रकाशित कराया है और यह ग्रन्थपरीक्षाका चतुर्थ भाग है।
जब इम प्रन्थ-परीक्षाको 'जैनजगतमें प्रकट होते हुए सालभर होगया था तब रायबहादुर माहू जुगमन्दरदासजी जैन रईस नजीबाबादने भा० दि० जैन परिपके नवम अधिवेशनमें सभापतिपदसे जो भापण सहारनपुर में ता० ३० दिसम्बर सन १६३२ को दिया था उसमें ग्रन्थपरीक्षाके पिछले तीन भागोंके साथ इस ग्रन्थपरीक्षाका भी अभिनन्दन किया था और कहा था कि
" उसे (सूर्य प्रकाश-परीक्षको) दग्बकर तो मेरे शरीर के रोंगटे खड़ होगये । भगवान महावीरके नामपर कैसा कैसा अनर्थ किया गया है और जैन शासनको मलिन करनेका कैसा नीच प्रयास किया गया है यह कुछ भी कहते नहीं बनता ! पं० टोडरमलजी
आदि कुछ समर्थ विद्वानोंके प्रयत्नसे भट्टारकीय साहित्य लुप्तप्राय होगया था परन्तु दुःखका विषय है कि अब कुछ भट्टारकानुयायी पण्डितोंने उसका फिरसे उद्धार करनेका बीड़ा उठाया है। अतः ___* यह १७६ पृष्ठोंको पुस्तक उक्त ला० जौहरीमलके तथा बा० पन्नालाल जैन, १६६५ मुहल्ला चर्खेवाला, देहलीके पाससे छह आनेमें मिलती है।