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उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा
इनकार करते हैं वे किन प्रमाणोंसे अपने कथनका समर्थन करते है !
आधार और प्रमाणकी ये सब बातें अभी तक आमतौरसे कहींपर प्रकाशित हुई मालूल नहीं होती; न कहींपर इनका ज़िकर सुना जाता है और न श्रीउमास्वामी महाराजके पश्चात् होनेवाले किसी माननीय श्राचार्यकी कृतिमें इस ग्रन्थका नामोल्लेख मिलता है। ऐसी हालतमें इस ग्रन्थकी परीक्षा और जाँचका करना बहुत जरूरी मालूम होता है। ग्रन्थ-परीक्षाको छोड़कर दूसरा कोई समुचित साधन इस बातके निर्णयका प्रतीत नहीं होता कि यह ग्रंथ वास्तवमें किसका बनाया हुआ है और कब बना है?
ग्रन्थके साथ उमास्वामीके नामका सम्बन्ध है, ग्रन्थके अन्तिम श्लोकसे पूर्वके काव्यमें 'स्वामी' शब्द पड़ा हुआ है और खुद ग्रन्थकर्ता महाशय उपर्युक्त श्लोक नं० ४६२ द्वारा यह प्रगट करते हैं कि 'इस ग्रंथमें सातवें सूत्रसे अवशिष्ट समाचार वर्णित है, इसीसे ७० अतीचार जो सातवे सूत्रमें वर्णन किये गये हैं वे यहां पृथक् नहीं कहे गये' इन सब बातोंसे यह ग्रन्थ सूत्रकार भगवदुमास्वामीका बनाया हुआ सिद्ध नहीं हो सकता । एक नामके अनेक व्यक्ति भी होते हैं; जैन साधुओंमें भी एक नामके धारक अनेक प्राचार्य और भट्टारक हो गये हैं; किसी व्यक्तिका दूसरेके नामसे ग्रंथ बनाना भी असंभव नहीं है । इसलिये जबतक किसी माननीय प्राचीन प्राचार्य के द्वारा यह ग्रन्थ भगवान् उमास्वामीका बनाया हुश्रा स्वीकृत न किया गया हो या खुद ग्रंथ ही अपने साहित्यादिपरसे उसकी सादी न दे, तबतक नामादिकके सम्बन्ध-मात्रसे इस ग्रंथको भगवदुमास्वामीका बनाया हुश्रा नहीं कह सकते । किसी माननीय प्राचीन श्राचार्यकी कृतिमें इस ग्रंथका कहीं नामोल्लेख तक न मिलनेसे अब हमें इसके साहित्यकी जाँच-द्वारा यही देखना चाहिये कि यह ग्रंथ, वास्तवमें, सूत्रकार
___ * अन्तिम श्लोकसे पूर्वका वह काव्य इस प्रकार है :"इति हतदुरितौघं श्रावकाचारसारं गदितमतिसुबोधावसकथं स्वामिभिश्च । विनयभरनतांगाः सम्यगार यन्तु विशदमतिमवाप्य ज्ञानयुक्ता भवंतु ॥४७३।।