Book Title: Umaswami Shravakachar Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 38
________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला भोगीपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद्वैतीयीकं गुणत्रतम ॥३-४।। यह पद्य ऊपरके पद्मसे बहुत कुछ मिलता जुलता है। मंभव है कि इसीपरसे ऊपरका पद्य बनाया गया हो और 'गुणव्रतम् इस पदका परिवर्तन करना रह गया हो। __ इस ग्रन्थ के एक पद्यमें 'लोच' का कारण भी वर्णन किया गया है। वह पद्य इस प्रकार है : अदैन्यवैराग्यकृत कृतोऽयं केशलोचकः । यतीश्वराणां वीरत्व व्रतनैर्मल्यदीपकः ॥५०॥ इस पद्यका ग्रन्थमें पूर्वोत्तरके किसी भी पद्यसे कुछ सम्बन्ध नहीं है। न कहीं इससे पहले लोंचका कोई जिकर आया और न ग्रन्थमें इमका कोई प्रसंग है । ऐसा असम्बद्ध और अप्रासंगिक कथन उमास्वामी महाराजका नहीं हो सकता । ग्रन्थकर्ताने कहाँपरसे यह मजमून लिया है और किस प्रकारसे इस पद्यको यहाँ देनेमें गलती खाई है, ये सब बातें जरूरत होनेपर, फिर कभी प्रगट की जायेंगी। इन सब बातोंके सिवा इस ग्रन्थमें, अनेक स्थानोंपर, ऐमा कथन भी पाया जाता है जो युक्ति और अागमसे बिलकुल विरुद्ध जान पड़ता है, और इसलिये उससे और भी ज्यादह इस बातका समर्थन होता है कि यह ग्रन्थ भगवान् उमास्वामीका बनाया हुआ नहीं है । ऐसे कथनके कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं : (१) ग्रंथकार महाशय, एक स्थानपर, लिम्वत हैं कि जिस मंदिरपर ध्वजा नहीं है, उस मंदिरमें किये हुए पूजन, होम और जपादिक सब ही विलुप्त हो जाते हैं अर्थान् उनका कुछ भी फल नहीं होता। यथा : प्रासादे ध्वजनिर्मुक्तं पूजाहोमजपादिकं । सर्व विलुप्यते यस्मात्तस्मात्को ध्बजोच्छ्यः ॥१०॥

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