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प्रस्तावना
चर्चासागरके प्रकाश र्थ द्रव्यकी सहायता देने में धोखा खाया है।
उक्त 'प्रन्थपरीक्षा' लखमालासे पहले आमतौर पर समाजके विद्वानों तकमें इतना मनोबल और साहस नहीं था कि वे जैनकी मुहर लगे हुए और जैन मन्दिरोंके शास्त्र-भण्डारों में विराजित किसी भी ग्रन्थके विरोधमें प्रकट रूपसे कोई शब्द कह सकें। और तो क्या, मेरे परीक्षा-लेखोंको पढ़कर और उनपर से यह जानकर भी कि वे ग्रन्थ धूर्तीके रचे हुए जाली तथा बनावटी हैं बहुतोंको उनपर अपनी स्पष्ट सम्मति देनेकी हिम्मत तक नहीं हुई थीहालाँ कि उसे अच्छी जाँच-पडनाल-पूर्वक देनेके लिये मैंने बार वार विद्वानोंसे निवेदन भी किया था। उनका वह संकोच चर्चासागरकी चर्चाओंके वातावरणमें विलीन होगया और वे भी अपने लेखादिकोंके द्वारा उन ग्रन्थपरीक्षाओंका अभिनन्दन करने लगे । कुछ विद्वानोंको आर्यसमाजके साथके शास्त्रार्थों तकमें यह धाषित कर देना पड़ा कि हम इन त्रिवर्णाचार जैसे प्रन्थोंको प्रमाण नहीं मानते। यह सब देखकर जैनजगतके सह-सम्पादक बाबू फतह चन्दजी सेठीने अपने २३ नवम्बर सन् १९३१ के पत्र में मुझे लिखा था___“ 'चर्चासागर के सम्बन्धमें जैनसमाजमें जो चर्चा चल रही है, उसमें प्रत्यक्षरूपसे यद्यपि आप भाग नहीं ले रहे हैं, किन्तु वास्तवमें इसका सारा श्रेय आपको है। यह सब आपक उस परिश्रमका फल है जो आजसे करीब १०-१२ (५८) वर्ष पहले से आप करते आ रहे हैं। जिस बातके कहनेके लिये उस समय आपको गालियाँ मिली थीं, वही आज स्थितिपालकदलके स्तम्भों द्वारा कही जा रही है।"
इसी समयके लगभग पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थने, जिन्होंने पहलेसे मेरी ग्रन्थपरीक्षाओं तथा दूसरी विवेचनात्मक पुस्तकों