Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 02
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books
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तुलसी शब्द-कोश
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पगार : सं०० (सं० प्राकार>प्रा० पागार) । घेरा (चारदीवारी)। 'पवरि
पगार प्रति बानरु बिलोकिए ।' कवि० ५.१७ (२) रक्ष क, शरण । 'बाह
पगार ।' हनु० ३६ पगारु : (१) पगार+कए । एकमात्र आश्रय । कवि० ७.१६ (२) घेरा,
रक्षाभित्ति । 'अगारु न पगारु न बजारु बच्यो।' कवि० ५.२३ पगि : पूकृ० । चासनी में पग कर, शर्करा द्रव से ओतप्रोत होकर । 'आखर अरथ
मंज़ मदु मोदक राम प्रेम पगि पागिहै।' विन० २२४.३ पगिया : सं०स्त्री० । सिर पर बांधा जाने वाला वस्त्रविशेष-साफा । 'सिर पगिया
जरकसी।' गी०१.४४.१ पग : पग+कए । एक डग, एक चरण, एक पदन्यास । 'रंगभूमि जब सिय पगु
धारी।' मा० १.२४८४ पघिलाइ : पूकृ० (सं० प्रघार्य) । पिघलाकर, द्रवरूप करके । 'लंक पघिलाइ पाग
पागिहै ।' कवि० ५.१४ । पचत : वकृ००। (१) (सं० पचत्>प्रा० पच्चत) । पकाता-पकाते । (२) (सं०
पच्यमान>प्रा० पच्चंत)। कष्ट उठाता-ते, पकता-ते। पेट ही को पचत, बचत बेटा बेटकी।' कवि० ७.६६ 'तुलसी बिकल पाहि पचत कुपीर हौं।'
कवि० ७.१६६ /पचव पचवइ : (सं० पाचयति>प्रा० पच्चवइ) आ०प्रए० । पचाता है, उदर में
परिपाक देता है । जिमि सो असन पचवै जठरागी।' मा० १.११६.६ पहिं : आ०प्रब० । पकाते हैं (क्लेशरूप फल भोगते हैं)। 'परिनाम पहिं पातकी
पाप ।' गी० ५.१६.७ पचा : भूकृ००। पच मरा, क्लेश में पड़कर खप गया। 'हारि निसाचर सैनु पचा।'
कवि० ६.१५ /पचार पचारइ : (सं० प्रचारयति ?>प्रा० पच्चारइ= उपालभते) आ०प्रए ।
ललकारता है । 'बार बार पचार हनुमाना।' मा० ६.५१.४ । पचारहि, हीं : आ०प्रब० । ललकारते हैं । 'एक एक सन भिरहिं पचारहिं ।' मा०
६.८१.४ पचारि : पूकृ० । ललकार कर । भिरहिं पचारि पचारि ।' मा० ६.४२ पचारी : पचारि । 'पुनि रावन कपि हते उ पचारी।' मा० ६.६५.४ पचारे : भूकृ००ब० । ललकारे । 'तब रघुबीर पचारे धाए कीस पचंड ।' मा०
पचार : (१)/पचारइ । ललकारे, ललकारता है । 'जौं रन हमहि पचार कोऊ।'
मा० १.२८४.२ (२) भकृ० अव्यय । ललकारने । 'लागेसि अधम पचारै मोही।' मा० ६.७४.५
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