Book Title: Tulsi Prajna 1997 10 Author(s): Parmeshwar Solanki Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ ४. ऐसा क्यों होता है ? कहा गया है-न देहो न जीवात्मा नेन्द्रियाणि परन्तप ! मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।। अर्थात् यह अतिक्रमण मन के कारण होता है। श्रद्धा-वात्सल्य-स्नेह-काम इन चार मानस प्रेम-भावों से बनी रति से मानव-मन बना है और उस पर आत्मनिष्ठा बुद्धि का नियंत्रण होता है । मन कहता है--- मद्यपान किया जाय, बुद्धि कहती है .... बुरा काम है। कभी नहीं पीना चाहिए । पुनः मन कहता है- एक बार पीने में क्या हानि है ? बस यहीं जो बुद्धि मन का नियन्त्रण करने में सफल हो जाती है वहां मानव अतिक्रमण से बच पाता है। मनु कहते हैं-भूतानां प्राणिन: श्रेष्ठाः । प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नरा: श्रेष्ठाः । अर्थात् लोष्ट-पाषाणादि भूत और ओषधि-वनस्पतियां, कृमि-कीट-पक्षी-पशु और आत्म स्वरूप निष्ठ मानव-- इन श्रेणियों में नर विशिष्ट हैं। अतः आत्मा से समन्वित बुद्धि-मन-शरीर भावों को यथा स्वरूप रखना ही मानवता है । यदि हम शरीर से श्रांत, मन से क्लांत और बुद्धि से परिश्रांत होंगे तो आत्मा से भी अशांत हो जाएंगे। ५. अत: यह सिद्धांत माने और उसका परिपालन करें कि जिस कर्म को करने से अन्तरात्मा को सन्तोष हो उसे यत्नपूर्वक करें और जो इसके विपरीत हो उसे ना करें यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः । तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत ।। - और इस सिद्धांत के पालन के लिए मनुष्य में स्वात्माभिमान, सहृदयता, सुमति, सच्चरित्रता, सहिष्णुता, सहयोग और समभाव को संस्थापित करें। मनस्तन्त्र को बुद्धि द्वारा आत्मनिष्ठ रखें, स्वस्थ रहें और मानव स्वरूप की रक्षा करें। _ गुरुदेव के शब्दों में-'घूम फिरकर बात उसी बिन्दु पर पहुंचती है कि जो मनुष्य आतुर है, अस्वस्थ है, वह हिंसा करता है। उसे हिंसा से बचाने के लिए मानसिक दृष्टि से स्वस्थ करना आवश्यक है । स्वस्थ होने का एकमात्र उपाय है अहिंसा का प्रशिक्षण । प्रशिक्षण का सम्बन्ध उपदेश से नहीं आचरण से है । हिंसा मत करो, यह उपदेश है । जिस दिन मनुष्य के आचरण से हिंसा निकलेगी, उसी दिन प्रशिक्षण अर्थवान बन सकेगा।' -परमेश्वर सोलंकी खण्ड २३, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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