Book Title: Tulsi Prajna 1997 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ अर्थात् ईश्वर में जो कुछ भी विभूतियां है, वे सब मानव में हैं और जो विभूतियां ईश्वर में नहीं हैं, मानव में वे विभूतियां भी आ जाती हैं। ईश्वर में जहां अविद्या-अस्मिता-आसक्ति-अभिनिवेशरूप क्लेश भावों से, कर्म विपाक आशयों से, ईर्ष्या-मद-दम्भ-मात्सर्यादि विभूतियों का सर्वथा अभाव है; वहां मानव अपने स्वतंत्र पुरुषार्थ का दुरुपयोग करके इन्हें भी अर्जित कर लेता है। दूसरे शब्दों में वह ईश्वरीय नियमों की अवहेलना करके अपनी मानस-कल्पनाओं के आधार पर जब काल्पनिक विधि-विधान बनाने में प्रवृत्त हो जाता है तो उस दशा में उसका स्वलन हो जाता ३. इस सम्बन्ध में तत्त्ववेत्ता महर्षि याज्ञवल्क्य ने एक आख्यान दिया हैसुनते हैं प्रजापति ने असुर-देवता-पितर-मनुष्य-पशु-भेद से पांच प्रजा उत्पन्न की । पांचों ने प्रजापति के सम्मुख अपनी इच्छा प्रकट की कि --वि नो धेहि, यथा जीवामः । आप हमें जीने का साधन प्रदान करें । सबसे पहले उदण्डतापूर्वक असुर बोले-प्रजापति ने उन्हें डाट दिया और कहा कि तुम सबसे बड़े हो और सबसे पहले मांग रहे हो । बैठ जाओ एक ओर । तुम्हें जो कुछ मिलेगा, सबसे पीछे मिलेगा । इस पर प्रणत भाव से देवता आए । प्रजापति ने उन्हें स्वाहापूर्वक यज्ञान और सूर्य प्रकाश दिया । संवत्सर में उत्तरायण तिथि निश्चित कर दी । देवता संतुष्ट हो गए । तब सौम्य भाव से पितर उपस्थित हुए। उन्हें स्वधा अन्न दिया गया और अमावस्या को एक बार भोजन तथा चन्द्रमा का प्रकाश दिया । वे भी संतुष्ट हुए। इस पर नमन करते हुए मनुष्य उपस्थित हुए। उन्हें नमः अन्न मिला और २४ घंटों में प्रातः सायं भोजन के साथ अग्नि का प्रकाश मिला । फिर सहज सुद्रा में पशु आए तो प्रजापति ने उन्हें कहा--'यथा कामं वोऽशनम् । यदैव यूयं कदा चलभाध्वै-यदि काले, यद्यनाकाले, वैवाश्नथेति'--कि तुम्हारे लिए कोई मर्यादा नहीं। चलते-फिरते-बैठे-सोते-खड़े-पैर पसारे - जब तब जो मिले खासकते हो। इससे पशु भी संतुष्ट हो गए। तब प्रजापति असुरों की ओर मुड़े और बोले माया, छल, कपट, धूर्तता, ईर्ष्या, कलह, परद्रोह, हिंसा, स्तेय, मिथ्या-भाषण आदि ही तुम्हारे अन्न हैं और घोर अन्धकार तुम्हारे लिए प्रकाश । असुर इस पर बहुत खुश हुए। ___ महर्षि याज्ञवल्क्य इस आख्यान के अन्त में कहते हैं कि प्रजापति की पांचों प्रजाओं में असुर-देवता-पितर-पशु-चार प्रजा तो अपनी मर्यादाओं में रहते हैं किन्तु मनुष्य उसका अति मण कर जाते हैं-न वै देवा अतिक्रामन्ति, न पितरः, न पशवः, नासुराः । मनुष्य एवैकेऽतिक्रामन्ति-कि प्रजापति ने जो मर्यादा बांधी उसका देवता अतिक्रमण नहीं करते, पितर अतिक्रमण रहीं करते, पशु अतिक्रमण नहीं करते, असुर अतिक्रमण नहीं करते किन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि मानव ही एक मात्र इन मर्यादाओं का उल्लंघन करता है। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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