Book Title: Tulsi Prajna 1994 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 7
________________ अप्पनिवेदणं नाहिति लोगा किमियं ति नच्चा, कज्जं सुकज्जं पि न तं करोसि । परस्स दिट्ठीय निरिक्खमाणो, अप्पाणमेवं परतंतिओ सि ॥ यदि मैं यह करूंगा तो लोग क्या कहेंगे ? ऐसा सोच कर तुम कार्य - सुकार्य भी नहीं करते। तो क्या तुम दूसरे की दृष्टि से देखे जाते हुए परतन्त्र नहीं बन गये ? एएण सिद्धतविणिच्छएण, अणेगवारं जडिला ठिईवि । उज्जूकया णेव मणं विसरणं, अस्थित्तमेवापि सुरक्खियं च ॥ अनेकों बार जटिल परिस्थितियों में इसी आत्म-चिन्तन से मैं स्वस्थ रहा हूं । इस प्रक्रिया से मेरा मन कभी विषण्ण नहीं हुआ और मैंने सदैव अपने अस्तित्व की सुरक्षा की। Jain Education International परस्स तोला म अहं तुलाए, माणेण अन्नस्स नियं मिणामि । पासामि विट्ठीई परस्स चे हं, तो अस्थिभावो पि ण अप्पणोत्थि || (क्योंकि) मैं दूसरों की तुला से तोला जाऊं, दूसरों के माप से मापा जाऊं और दूसरों की दृष्टि से देखा जाऊं ? यह स्वयं अपने अस्तित्व को नकारने जैसा है । जेणत्थि दिण्णा पवरा सुदिट्ठी, तेणत्थि मग्गो पवरोत्थ पत्तो । सुरक्खि तेण कयण्णया थ पट्ठिओ मे तुलसी तओत्थि ॥ (इसलिये ) जिसने मुझे सुदृष्टि दी, उसी ने मुझे सही मार्ग दिखाया । मेरे हृदय में आचार्य तुलसी प्रतिष्ठित हैं और मेरी कृतज्ञता भी सुरक्षित है । For Private & Personal Use Only -आचार्य महाप्रज्ञ (सं० २०१९ ) www.jainelibrary.org

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