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हुए साक्षात अमृत को पीते हैं।" एक नय का तो ऐसा पक्ष है कि यह चिन्मात्र जीव कर्म से बंधा हुआ है और दूसरे नय का पक्ष ऐसा है कि कर्म से नहीं बधा। इस तरह दो नयों के दो पक्ष हैं। दोनों नयों में जिसका पक्षपात है वह तत्वज्ञ नहीं और जो तत्वज्ञ है वह पक्षपात से रहित है। उस पुरुष का चिन्मात्र आत्मा चिन्मात्र ही है, उसमें पक्षपात से कल्पना नहीं करता है।" जो कोई कर्मनय के अवलम्बन में तत्पर हैं, उसके पक्षपाती हैं वे भी डूब जाते हैं । जो ज्ञान को तो जानते नहीं और ज्ञाननय के पक्षपाती हैं वे भी डूबते हैं । जो क्रियाकांड को छोड़कर स्वच्छन्द हो प्रमादी हो गए, स्वरूप में मन्द उद्यमी हैं, वे भी डूबते हैं किन्तु जो आप निरन्तर ज्ञानरूप हुए कर्म को तो करते नहीं तथा प्रमाद के वश भी नहीं होते, स्वरूप में उत्साहवान हैं वे सब लोक के ऊपर तैरते हैं । १३ भेद विज्ञान की महिमा के बारे में वर्णन किया गया है-जो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस भेद विज्ञान से ही हुए हैं और जो कर्म से बंधे हैं वे इसी भेद विज्ञान के अभाव में बंधे है।४ इसका अभिप्राय यह है कि आत्मा और कर्म की एकता मानने से ही संसार है । वहां अनादि से जब तक भेद विज्ञान नहीं है तब तक कर्म से बंधता ही है । इसलिए कर्म बन्ध का मूल भेद विज्ञान का अभाव ही है । इस प्रकरण में यह यह भी समझना चाहिए कि विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध तथा वेदान्ती वस्तु को अद्वैत कहते हैं तथा उसकी सिद्धि अनुभव से ही कहते हैं। उनका भी इस भेद विज्ञान से अद्वैत सिद्धि कहने का निषेध हुआ।। क्योंकि सर्वथा वस्तु का स्वरूप अद्वत नहीं है परन्तु जो मानते हैं उनका भेदविज्ञान का कथन नहीं बन सकता क्योंकि इसका कथन तो द्रुत मानने पर ही संभव है । जब जीवअजीव दो वस्तुयें माने और दो का संयोग माने, तभी भेदविज्ञान हो सकता है अतः अनेकान्त के मानने पर ही यह निर्बाध सिद्ध हो सकता है।
जगत में निश्चय से चेतना अद्वैत है तो भी जो दर्शन ज्ञान रूप को छोड़े तो सामान्य विशेष रूप के अभाव से वह चेतना अपने अस्तित्व को छोड़ दे
और जब चेतना अपने अस्तित्व को छोड़ दें तो चेतना के जड़पना हो जाय तथा व्याप्य आत्मा व्यापक चेतना के बिना अन्त को प्राप्त हो जाय अर्थात् आत्मा का नाश हो जाय । इसलिए चेतना नियम से दशंन ज्ञान स्वरूप ही है। वस्तु का स्वरूप सामान्य विशेषात्मक है । चेतना भी वस्तु है। वह दर्शन ज्ञान विशेष को यदि छोड़ दे तो वस्तु का नाश हो जाय तब चेतना का अभाव हो जाने से चेतन के जड़पना आ जायेगा । चेतना आत्मा की सब अवस्थाओं में पाई जाती है इसलिए व्यापक है। आत्मा चेतन ही है इस कारण चेतना का अभाव व्याप्य है। इस कारण व्यापक के अभाव में व्याप्य जो चेतन आत्मा उसका अभाव होता है इसलिए चेतनादर्शनज्ञान स्वरूप हो माननी चाहिए। यहां पर तात्पर्य है कि सांख्यमती आदि कई मत वाले सामान्य चेतना को मानकर तो
तुलसी प्रज्ञा
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