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मधुभास की हवायें सबके लिए स्पृहरणीय होती है :
लंका तोरणमालिआ तरलिणो कुंभुन्भवस्सासमे, मंदंदोलिअचंदणदुमलदा कप्पूर संपक्किणो । कंकोली कुलकंपिणो फणिलदा णिप्पट्टणटावआ,
चंडंचुबिदतंबपण्णिसलिल वाअंति चेत्ताणिला ।।3 कलागत सौन्दर्य-इस श्रेणी के अन्तर्गत काव्यकला-भावपक्ष एवं कलापक्ष, वाद्यकला, नृत्यकला आदि का चित्रण अनुस्यूत है । कविराजशेखर काव्य-कला में निष्णात तो हैं ही काव्य-सिद्धांत निरूपण में भी विख्यात हैं। काव्यमीमांसा ग्रन्थ साहित्यशास्त्र की बहुमूल्य निधि है।
क० म० के विभिन्न स्थलों पर रस गुण, अलंकार आदि का सुन्दर चित्रण प्राप्त होता है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में शृंगार रस की कमनीयता विद्यमान है । वैदर्भी, मागधी, पांचाली आदि रीतियां सहजतया विलसित हैं । फुरउ विलिहंतु एवं गंदंतु क्रियापदों में काव्य में व्यंजना की प्रधानता पर बल दिया गया है। सट्टक की परिभाषा (१.६) बताकर उत्कृष्ट काव्य का स्वरूप निरूपित किया गया है :
अत्थविसेसा ते चित्र सहा ते चेअ परिणमंतावि ।
उत्तिविसेसं कव्वं भाषा जा होउ सा होउ ।। नत्यकला में चर्चरी आदि लोक नृत्यों का सौंदर्य चळ है।
इस प्रकार कर्पूरमंजरी सौंदर्य की दृष्टि में कविराजशेखर की एक उत्कृष्ट रचना है। सन्दर्भ सूची: १. कर्पूरमंजरी १.१ २. तत्रैव १.२ ३. तत्रैव ४.२४ ४. सौन्दर्यशास्त्र : स्वरूप एवं विकास पृ० ३० ५. पाणिनीय-अष्टाध्यायी ५.१.१२४ ६. वाचस्पत्यम् पृ० ५३३८ ७. युधिष्ठिर मीमांसक, संस्कृत धातुकोश पृ० १३ ८. हलायुध-कोश पृ० ७१४ ९. कर्पूरमंजरी ३.२ १०. संस्कृत धातुकोश पृ० २९ ११. श्रीमद्भागवत महापुराण १२.१२.४९ १२. अभिज्ञान शाकुन्तल ६.५ १३. शिशुपालवधमहाकाव्य ४.१७
तुलसी प्रज्ञा
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