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पुस्तक समीक्षा
१. आगम सम्पादन की समस्याएं: युवाचार्य महाप्रज्ञ : जैन विश्व भारती प्रकाशन, लाडनूं, सन् १९९३, पृष्ठ १२०, मूल्य १०/
जैन अर्धमागधी आगम साहित्य के सम्पादन की समस्याओं के विषय में एक नवीन प्रकाशन विद्वत् जगत् के सामने आया है जो आगम सम्पादकों के लिए अतीव उपयोगी बन पड़ेगा। इस पुस्तिका में उनका ( युवाचार्यजी का ) अपना आगम सम्पादन का इतिहास, समस्याएं, पद्धति, पाठान्तरों की परम्परा, उच्चारण भेद, संक्षिप्त और विस्तृत पाठ, वर्णक और "जाव" पद, हमारा दृष्टिकोण, आगमों की भाषा, छन्द, परिशिष्ट आदि १४ विभाग हैं । " स्थान और व्यक्ति" वाला परिशिष्ट अपनी विशिष्ट उपयोगिता रखता है । ० युवाचार्यजी ने अपने सम्पादन के अनुभवों को बड़ी ही रोचक शैली में सप्रमाण प्रस्तुत किए हैं । आगमों के सम्पादकों के सामने जो समस्याएं रही है उनका समाधान भी तथ्यों के आधार पर किया गया है। मात्र अंध श्रद्धा या अंध भक्ति को उसमें स्थान नहीं है, न ही पूर्वाग्रहों से पीड़ित परम्परा की रट लगाने वालों की मिथ्या धारणा को ही उसमें स्थान दिया गया है और पवित्र शास्त्र के प्रति पूजनीय भाव को निभाते हुए समालोचना की गई है। बदलते हुए काल और क्षेत्र के प्रभाव से आगमों की मूल भाषा बच नहीं सकी । यदि ई० स० के पूर्व (मगध देश की जहाँ पर भगवान् ने देशना दी थी और गणधरों ने उसे भाषाबद्ध किया था) की मूल भाषा तक पहुंचना है तो युवाचार्यजी ने यथा योग्य ही " फरमाया" है - "पाठ सम्पादन में प्राचीन प्राकृत के रूपों को प्राथमिकता देना आवश्यक है" (पृष्ठ १०३) भाषा और आगम सम्पादन के लिए प्राचीन प्राकृत के आधार पर कुछ विशेष पद्धतियों व मानदण्डों की प्रस्थापना आवश्यक है (पृष्ठ १०४) आदर्शो ( मूलसूत्र की प्रतियों) के कालक्रमीय तुलनात्मक अध्ययन की अनिवार्यता की ओर उन्होंने स्पष्ट संकेत किया है जो सर्वत्र उपादेय होगा । उनका यह मन्तव्य सर्वथा तथ्यपूर्ण है "आगम रचना का काल एक नहीं रहा है, महावीर के अस्तित्वकाल से देवधिगणी तक आगमों का प्रणयन, संकलन और संवर्धन होता रहा है । भाषा की दृष्टि से प्राचीन प्राकृत (अर्धमागधी)
खण्ड १९, अंक २
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