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उलटा सिद्ध होगा और उपलब्ध हो रहे तथ्यों से मुंह मोड़ने के समान होगा।
__इस विषय में आगमों के मर्मज्ञ, सम्यग श्रद्धावान्, भक्तिभाव से ओतप्रोत और चारित्र्यशील तथा अन्धश्रद्धा से मुक्त, लकीर के फकीर नहीं ऐसे पू० आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी का अभिप्राय जानना हितकर होगा। उनके संशोधन एवं सम्पादन के अनुभव का सार* इस प्रकार है
"सभी प्रतियों में भाषा का अधिक वैषम्य है। चूर्णिकार और टीकाकारों के आदर्श हमारे सामने नहीं हैं। मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन का 'लोप' और महाप्राण व्यंजन का 'ह' में बदलना इतने प्रमाण में नहीं था। प्राचीन शब्द-प्रयोग न समझने के कारण जानबूझकर प्रयोगों को बदला गया है। आगमों की भाषा खिचड़ी बन गयी है और मौलिक भाषा को खोज निकालना दुष्कर हो गया है । संशोधन के लिए मात्र हेमचन्द्राचार्य का व्याकरण पर्याप्त नहीं है।"
संशोधनकर्ता मात्र पाश्चात्य प्रभाव में आकर भाषिक घुसपैठ नहीं कर रहे हैं। भगवान महावीर के काल में प्रचलित भाषा के मूल स्वरूप तक पहुंचने का सम्यक् प्रयत्न कर रहे हैं। मुनिश्री पुण्यविजयजी का अभिप्राय स्पष्ट है और इसे समझने की कोशिश करनी चाहिए। अनभिज्ञता के आधार पर मात्र श्रद्धा के बल-बूते पर जिस विषय में प्रवेश नहीं हो उस पर टीकाटिप्पण करना भी तो अनधिकार चेष्टा ही माना जाता है न ।
घुस-पैठ हम नहीं कर रहे हैं वह तो पूर्व से ही प्रमादवश हो चुकी है और उसके भी कारण थे-भाषा की मौलिकता पर भार नहीं देना और पाठकों तथा लिपिकारों का प्रमाद ।
___ प्रमाद और विषमता को प्रकाश में लाने के लिए निम्न सामग्री प्रस्तुत की जा रही है जिससे सामान्य जन को भी सम्यग् बोध हो सके । इस प्रकार के हजारों (पाठान्तर और विषमताएं) मिलते हैं, उनमें से कुछ उदाहरण-रूप इधर दिए जा रहे हैं---
(१) नासिक्य व्यंजन के साथ स्ववर्ग के व्यंजन का संयुक्त रूप में प्रयोग प्राचीन प्रणाली रही है . * कल्पसूत्र, सम्पादक-मुनिश्री पुण्यविजयजी, (मूल गुजराती) प्रस्तावना,
पृ० ३ से ७ (साराभाई मणिलाल नवाब, १९५२) का सारांश । देखिए'प्रा० अ० की खोज में' पृ० १ और २।। + देखिए : परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी,
अध्याय ६, अनुनासिक व्यंजन ङ और ञ का अनुस्वार में परिवर्तन, के० आर० चन्द्र, पृ० ३८ से ४२ (शीघ्र ही प्रकाश्यमान) ।
खण्ड १९, अंक २
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