Book Title: Tulsi Prajna 1993 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ (घ) मूलाचार में आचार्य कुन्दकुन्द की बारस-अनुप्रेक्षा की कुछ गाथाएं भी बिना संख्या दिये हुए उद्ध त की गयी हैं । इन दोनों आचार्यों के ग्रन्थों में समानता और असमानता के विभिन्न प्रसंगों की चर्चा मूलाचार पर शोध-प्रबन्ध लिखने वाले विद्वान् डा. फूलचन्द जैन 'प्रेमी' ने की है। उनका निष्कर्ष है कि वट के र, कुन्दकुन्द के पश्चाद्वर्ती थे और दोनों एक ही परम्परा के पोषक रहे हैं । अतः मूलाचार में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का प्रभाव कोई आश्चर्य का विषय नहीं है।' ३. शिवार्यकृत भगवतीआराधना प्राचीन जैन धर्म के स्वरूप को जानने के लिए भगवतीआराधना प्राकृत का आधार ग्रन्थ है । अतः स्वाभाविक है कि शिवार्य ने अपने पूर्ववर्ती जैन साहित्य का दोहन कर उसमें से कुछ मणियां चुनी हों। आ० कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएं भगवतीआराधना में प्राप्त हैं । कुन्दकुन्द की बारसअनुप्रेक्षा संक्षिप्त हैं, जबकि शिवार्य ने अनुप्रेक्षा वर्णन के प्रसंग में समस्त जैन दर्शन को कह डाला है। किन्तु १२ भावनाओं की आधार गाथा दोनों की समान है। अर्धवम सरणमेगतमण्णसंसारलोगमसुचित्तं । आसवसंवरणिज्जरधम्म बोहिं च चितेज्जो ।। बारसाणपेक्खा, गा.२; भ. आ. गाथा १७१० कर्मास्रव के परिणाम को बताते हुए शिवार्य ने जो गाथा दी है, वह कुन्दकुन्द की गाथा के बहुत निकट है । यथा जम्मसमुद्दे बहुदोसबीचिये दुक्खजलचराकिणणे । जीवस्स परिब्भमणं कम्मासवकारणं होदि । -द्वा. अनु. गा. ५६ शिवार्य की गाथा में अंतिम चरण में थोड़ा परिवर्तन हैपरिब्भमणम्मि कारणं आसवो होदि (भ. आ. १८१५)। बारस अनुपेक्खा की गाथा नं. १३, ४८, ४९, एवं ६७ भगवती आराधना की गाथा संख्या १७४६, १८२५, १८२६ एवं १८४७ के समान हैं । कुन्दकुन्द के बारस अनुप्रेक्षा के अतिरिक्त उनके अन्य ग्रन्थों की गाथाएं भी भगवतीमआराधना में पायी जाती हैं । यथा१. दर्शनपाहुड की गा. ३ 'दंसणभट्टा भट्टा' भ. आ. की ७३७ वीं गाथा है। इसमें "भट्टा" को "भट्टो" के रूप में रखा है, जो पाठ सम्पादन की भूल है। २. प्रवचनसार की गाथा २३८-"जं अणणणी कम्म खवेदि" को भ. आ. में उसी रूप में प्रस्तुत किया गया है (गा १०७)। केवल अंतिम चरण में प्रवचनसार की गाथा के पाठ "उस्सासमेतेण'' को 'अंतो तुलसो प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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