Book Title: The Jain 1988 07
Author(s): Natubhai Shah
Publisher: UK Jain Samaj Europe

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Page 182
________________ पूजा समय निम्नोक्त दोहा बोलें रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विश्राम । शीतल गुण जेहमा रह्यो, शीतल प्रभु मुख अंग । नाभि कमलनी पूजना, करता अविचल धाम ।। आत्म शीतल करवा भणी, पूजा अरिहा अंग ।। इस प्रकार उपरोक्त क्रम के अनुसार ही बहुत ही शान्त चन्दन-पूजा व अंग-रचना के बाद प्रभुजी की केसर से व एकाग्र चित्त से नवांगी पूजा करनी चाहिये । नवांगी पूजा करें। नवांगी पूजा करते समय निम्नोक्त उसके बाद सुगंधित व अखंडित पुष्पों से पुष्प-पूजा करनी दोहे बोलें चाहिये। पुष्प-पूजा समय निम्न दोहा बोलें१ चरणांगुष्ट पूजा सुरभि अखंड कुसुम ग्रही, पूजा गत संताप । जलभरी संपुट पत्रमा, युगलिक नर-पूजंत । सुमजंतु भव्य ज परे, करिये समकित छाप ।। ऋषभ चरण अंगुठडे, दायक भव जल अंत ।। इस प्रकार उपरोक्त विधिपूर्वक मूलनायक अथवा अन्य २ जानु पूजा प्रतिमाजी की भक्तिपूर्वक पूजा करने के बाद मन्दिर में रहे हुए जानु बले काउसग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश । अन्य जिन बिम्बों की भी भावपूर्वक अंग-पूजा करनी चाहिये। खडा खडा केवल लह्य, पूजो जानु नरेश ।। इस प्रकार भक्तिरसपूर्ण हृदय से उपरोक्त अथवा पूर्वाचार्य ३ हस्तकांड पूजा कृत अन्य स्तुतियों द्वारा प्रभु की स्तवना करने के बाद प्रभु लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान । की छद्मस्थावस्था, केवली अवस्था तथा सिद्धावस्था का कर-कांडे प्रभु-पूजनां, पूजो भवि बहुमान ।। भावन करना चाहिये। ४ स्कंध पूजा तदुपरांत यदि मात्र दर्शनार्थ ही आये हो तो शुद्ध मान गयु दोय अंसथी, देखी वीर्य अनंत । भूजा बले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत ।। वस्त्रधारी श्रावक अष्टपटक-मुखकोश बाँध प्रभुजी की वासक्षेप पूजा करे, उसके बाद अग्रपूजा कर चैत्यवंदन करना ५ सिर-शिखर पूजा चाहिये। (जिसके विस्तृत वर्णन हेतु आगे के पृष्ठ देखें) सिद्धशिला गुण उजली, लोकांते भगवंत । और यदि प्रभु-पूजा हेतु आये हो तो पूजा के योग्य सामग्री 'बसिया' तेणे कारण भवि, शिर शिखा पूजंत ।। को तेयार करना चाहिये। प्रभु-पूजा के पूर्व अपने भाल पर ६ भाल पूजा तिलक करना चाहिये (तिलक हेतु प्रभु-पूजा से अतिरिक्त तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जल सेवंत । केसर का उपयोग करे ) भाल पर तिलक कर पूजक प्रभु त्रिभुवन-तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत ।। को प्राज्ञा को सिर पर चढ़ाता है। ७ कंठ पूजा अंग-पूजा विधि : सोल प्रहर प्रभु देशना, कंठे विवर वरतुल । मधुर ध्वनि सुरनर सुने, तिणे गले तिलक अमूल ।। प्रभुजी को स्पर्श कर, की जाती हुई पूजा अंग-पूजा कहलाता है। जल-चंदन-केसर-पुष्प तथा आभूषण आदि ८ हृदय पूजा द्वारा प्रभुजो की अंग-पूजा की जाती है। हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष । प्रभुजी के मुख्य गभारे में प्रवेश पूर्व ही अष्टपटक वाला मुखजे दृष्टि प्रभुदर्शन करे, ते दृष्टिने पण धन्य छ, कोश बांधना चाहिये। सर्वप्रथम प्रतिमाजी पर रहे पुष्पों जे जीभ जिनवरने स्तवे, ते जीभने पण धन्य छ, को उतार कर मोर पिछी से यतनापूर्वक प्रभार्जना करनी पीये मुदा वाणी सुधा, ते कर्णयुगने धन्य छ, चाहिये। उसके बाद कुएँ के स्वच्छ व छाने हुए जल से तुज नाम मंत्र विशद धरे, ते हृदयने नित धन्य छे ।। ६ ।। प्रभुजी का अभिषेक करना चाहिये। जलाभिषेक के बाद सुण्या हशे पूज्या हशे, निरख्या हशे पण को क्षण, गत दिन की प्रांगी (बरक-केसरादि) को साफ करना चाहिये। हे ! जगत् बंधु ! चित्तमा, धार्या नहि भक्तिपणे; प्रभजी के किसी भाग में केसर आदि रह गया हो तो उसे जन्म्यो प्रभु ते कारण, दुःख पात्र हुँ संसारमा, बहुत ही कोमल हाथ से व धीरे धोरे वालाकूची से साफ हा ! भक्ति ते फलती नथी, जे भाव शून्याचारमा ।। ७ ।। करना चाहिये। दांत में फंसे हुए करण आदि को निकालते समय सली के सावधानी पूर्वक के प्रयोग की तरह ही, हिम दहे वन खंड ने हृदय - तिलक संतोष ।। बालाकुची का प्रयोग करना चाहिये। वालाकुची जोर से है नाभि पूजा घिसने से देवाधिदेव को बड़ी भारी आशातना होती है। 149 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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