Book Title: The Jain 1988 07
Author(s): Natubhai Shah
Publisher: UK Jain Samaj Europe

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Page 186
________________ = gáin १३) अष्टमंगल- स्वस्तिक, धर्मचक्र, नन्द्यावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, १८) मकरमुख-मंदिरों के द्वार, देहरियों के मध्य में तथा स्तंभो पर मीन-युगल, पद्म और दर्पण अष्टमंगलिक कहलाते है। मिलते है। १९) शार्दूल-शार्दूल के पिछले पैरों के पास और अगले पैरों की लपेट १४) अष्ट प्रातिहार्य- अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि,दंदुभि, सिंहासन, में एक मनुष्य दिखलाई पड़ता है और शार्दूल की पीठ पर आयुध लिये दिव्यध्वनि, छत्र त्रय, चामर और भामंडल ये तीर्थकरों के आठ प्रातिहार्य हुए कोई मनुष्य बैठा रहता है । होते है । तीर्थकर की प्रतिमाओं पर इनका अंकन मिलता है। २०) कीर्तिमुख- इसका अंकन प्रायः स्तम्भों, तोरणों और कोष्ठको १५) चौदह स्वप्न- हाथी, बैल, सिंह, लक्ष्मी , पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, आदि मे होता है । इसकी मालाएँ, लड़ियाँ और शृंखलाएँ लटकती ध्वजा, कुंभ, पद्मसरोवर, क्षीरसमुद्र, देवविमान अथवा भवन, रत्नराशी, दिखलाई पड़ती है। निर्धम-अग्नि, ये चौदह स्वप्न तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती की माता ऐसे पत्र के गर्भ में आने पर देखती है। २१) कीचक-स्तंभ के शीर्षों पर बैठा मनुष्य छत्र का भारवहन करता १६) नवनिधि- काल, महाकाल, पांड, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, नं०२२ से ३६ तक के प्रतीक स्पष्ट है अतः उनकी व्याख्या नहीं दी जाती पिंगल, गानारत्न, (तिलोयपण्णति महाधिकार ४,१३८४) ('मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म' पुस्तक से साभार) १७) नवग्रह- रवि, चन्द्र, मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू, केतु, । इनका अंकन द्वारों, तीर्थकर मूर्तियों, देव-देवियों की मूर्तियों के साथ भी हुआ है और स्वतन्त्र भी हुआ है । सच्चा सुख ( संकलन : चीफ० श्रीमती सूरज भण्डारी, लन्दन ) सुख और शान्ति सभी चाहते हैं, किन्तु देखा यह जाता है | कहा-"भन्ते ! यह भिक्ष प्रत्येक कार्य करते समय 'महो सुखम्, कि मनुष्य स्वयं दुखों को ग्रामत्रित करता है। अर्थोपार्जन करने | अहो सुखम्' का उच्चारण करता है। प्रतीत होता है कि इसे के लिए वह अपने प्रात्मिक सुखों को भी न्योछावर कर देता है । | राजप्रसाद के सुख याद पाते हैं।" बुद्ध ने जब उस भिक्षु से 'अहो व्यक्ति की महत्त्वकांक्षा होती है कि मैं धनाढ्य बनकर समाज में सुखम्, अहो सुखम्' कहने का कारण पूछा तो वह बोला-"भन्ते ! प्रतिष्ठा प्राप्त करू और वह इसी में सुख मानता है। दूसरी ओर जब मैं राजा था, तब मुझे संदेह रहता था कि किसी ने विष तो नहीं हम देखते हैं कि एक अकिचन परिबाजक अनेकों कष्टों को सहन करता मिलाया है? रात्रि के समय मेरे महल के चारों ओर तीन सैनिक है। उस परिव्राजक का लक्ष्य भी सुखों को प्राप्त करना है। फिर भी पक्तियां रहती थीं वे संनिक नंगी तलवार लिए सजग होकर मेरी रक्षा सुख-प्राप्ति के लिये दोनों मार्गों में मौलिक अन्तर है। करते थे, फिर भी रात्रि में अचानक मेरी नींद टूट जाती और मुझे प्रत्येक व्यक्ति सुख-दःख की परिणति अपनी इच्छानुसार करता भय लगता कि कोई शत्रु आक्रमरण तो नहीं कर रहा है। कोई मेरे है। एक धनी व्यक्ति की दृष्टि में भौतिक उपलब्धियाँ ही अमित | विरुद्ध षड़यंत्र तो नहीं रच रहा है। इस प्रकार मैं सदा संदिग्ध सूख है और उनके लिए वह अनेकों कष्टों का सामना भी करता है | और उद्भ्रान्त-सा रहता था, किन्तु भिक्षु-पर्याय में मुझे महान प्रानन्द पर पाखिर देखा यह जाता है कि मुल से जगात भारी पड़ जाती है। की अनुभूति होती है। जो भी मुझे रुखा-सूखा भोजन मिलता है, वह वास्तविकता यह है कि इच्छायों की पूर्ति कभी होती नहीं ।। मुझे सुस्वादु लगता है। भोजन करते समय मुझे किसी प्रकार का भगवान महावीर ने कहा-"इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। सन्देह नहीं होता है। रात्रि के समय अरण्य में वृक्ष के नीचे या जहाँ मनुष्य को अपनी लालसानों पर नियंत्रण रखना चाहिए।" भी मैं सोता है, सुखद नींद पाती है। भन्ते ! इस प्रकार निर्भय प्रतिक लता में भी मनुष्य सुख के दर्शन कर सकता है। सम्राट होकर प्रानन्द का जीवन जीता है। राजप्रसाद के सुख मुझे भिक्षुकी अपेक्षा अकिचन परिव्राट अात्मस्थ होकर असीम आनन्द की पर्याय के सखों के सामने तुच्छ लगते हैं। अत: मेरे मुह से 'महो सुखम् अनुभूति करता है। एक बौद्ध पाख्यान में बताया गया है कि भट्टिय | अहो सुखम्' के उद्गार निकलतें हैं।" नामक एक राजा बुद्ध के समीप जाकर प्रव्रज्या ग्रहण करता है। सुख-दुःख तो प्रात्म-परिणति में है। घोर समस्यायों में भी भिक्षु-पर्याय ग्रहण करने के पश्चात् जब भी वह उठता है, बैठता है | मनुष्य मुस्कुरा सकता है, यदि प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूलता में या भोजन करता है, उसके मुख से एक ही वाक्य निकलता है-'अहो | परिणत कर दे। सुख-दुःख का निमित्त मानसिक चिन्तन होता है। सुखम्, अहो सुखम् ।' अतः चिन्तन को मोड़ देने की अपेक्षा है। एक दिन भद्दिय भिक्षु के साधर्मिक भिक्षुओं ने बुद्ध को जाकर | • मंगल वाटिका, मद्रास 153 Jain Education Intemational 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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