Book Title: The Jain 1988 07
Author(s): Natubhai Shah
Publisher: UK Jain Samaj Europe
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THE
= Jain
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जैन प्रतीक
प्रतीकों की भारतीय धर्मो में विशेष महत्ता रही है। मंत्र-तंत्र में एवं अनिष्ट निवारण में इनका महत्वपूर्ण महत्व रहा है। ये प्रतीक तीर्थकरों की स्मृति का पुनर्नवीकरण करते है, और जनमानस में उनके आदशों की प्रेरणा जागृत करते है। ये प्रतीक दो प्रकार के होते है १- अतदाकार २तदाकार । अतदाकार प्रतीकों को तीन भागों में आकृति के अनुसार विभाजित किया गया है ।
(अ) इनमे स्तूप, त्रिरत्न, चैत्यस्तम्भ, चैत्यवृक्ष, पूर्णघट, श्रावसंपुट, पुष्प, पुष्पपड़लक ।
(आ) अष्ट मंगल तथा तीर्थकरों के लांछन ।
(इ) अष्टप्रातिहार्य और आयागपट्ट ।
तदाकार प्रतीक के अन्तर्गत तीर्थकरों की अनेक प्रकारकी प्रतिमाएँ होती है
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जैन प्रतीकों का परिचय
जैन मन्दिरों में प्रायः निम्नलिखित प्रतीक मिलते है१) आयागपट्ट, २) स्तूप, ३) धर्मचक्र, ४) स्वस्तिक, ५) नंद्यावर्त, ६) चैत्यस्तंभ, ७) चैत्यवृक्ष, ८) श्रीवत्स, ९) सहस्रकूट, १०) चैत्य, ११) सर्वतोभद्रिका, १२) त्रिरत्न, १३) अष्टमंगल, १४) अष्टप्रातिहार्य, १५ ) चौदहवन, १६) नवनिधि, १७) नवग्रह, १८) मकरमुख, १९) शार्दूल, २०) कीर्तिमुख, २१) कीचक, २२) गंगा - सिन्धु, २३) नाग नागिन, २४) चरण, २५) पूर्णघट, २६) शरावसंपुट, २७) पुष्पमाला, २८) आम्रगुच्छक, २९) सर्प, ३०) जटा, ३१) लांछन, ३२) यक्ष-यक्षी, ३३) पद्मासन, ३४) खड़गासन, ३५) एक तीर्थकर की प्रतिमासे चोवीस तीर्थकरों की प्रतिमा तक, ३६) चौवीस से अधिक जिन प्रतिमाओं के पट्ट । इत्यादि
१) आयागपट्ट वर्गाकार या आयताकार एक शिलापट्ट होता है जो पूजा के उद्देश्य से स्थापित किया जाता है इस पर कुछ जैन प्रतीक उत्कीर्ण होते है । कुछ पर मध्य में तीर्थकर की मूर्ति भी होती है। बुलहर के अनुसार अर्हतों की पूजा के लिए स्थापित पूजापट्ट को आयागपट्ट कहते है ये स्तूप के चारों द्वारों में से प्रत्येक के सामने स्थापित किए जाते थे ।
२) स्तूप - यह लम्बोत्तरी आकृति का होता है। इसके चार वेदिकायें होती हैं ।
३ धर्मचक्र - गोल फलक में बना हुआ चक्र होता है । इस के बारह या चोवीस आरे होते है। कोई धर्मचक्र १००० आरों का भी होता है । जिनमूर्तियों की चरण चौकी पर इसका अंकन होता हैं ।
४) स्वस्तिक - एक दूसरी को काटती हुई सीधी रेखाएँ जो सिरों से मुडी होती है। इसका प्रयोग स्वतन्त्र भी होता है और अष्टमंगल में भी होता हैं।
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५) नन्दयावर्तनन्द्रय का अर्थ सुखद है या मांगलिक है और आवर्त का अर्थ घेरा है । इसका रूप स्वस्तिक जैसा होता है किन्तु इसके सिरे एकदम घुमावदार होते है जब कि स्वस्तिक का मोड़ सीधा होता है ।
६) चैत्यस्तंभ एक चकोर स्तम्भ होता है जिसकी चारों दिशाओं में तीर्थकर प्रतिमाएँ होती है और स्तम्भ के शिखर पर लघुशिखा होती है।
७) चैत्यवृक्ष - तीर्थकर को जिस वृक्ष के नीचे केवलझान होता है वह चैत्यवृक्ष कहलाता है किंतु कला में प्रायः अशोकवृक्ष का ही चैत्यवृक्ष के - रुप में अंकन हुआ है। बहुधा वृक्ष के ऊपरी भाग में तीर्थकर प्रतिमा का भी अंकन होता है ।
८) श्रीवत्स - तीर्थकर की छाती पर एक कमलाकार चिन्ह होता है ।
९) सहस्रकूट - एक चकोर पाषाण स्तम्भ में १००८ तीर्थकर की मूर्तियाँ अंकित होती है ।
१०) चैत्य- तीर्थकर प्रतिमा या जिनमन्दिर ।
११) सर्वतोभद्रिका एक चकोर पाषाण स्तम्भ में चारों दिशाओं में एक-एक तीर्थकर प्रतिमा होती हैं। ये चारों प्रतिमाएँ एक ही तीर्थकर की अथवा भिन्न-भिन्न तीर्थकरों की होती है। कंकालीटीला मथुरा से ऐसी प्रतिमाएँ प्राप्त हुआ है। इसमें १ एक प्रतिमा के कन्धों तक केशों की जटाएँ लटक रही है यह प्रतिमा प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभदेव की है । २) दूसरी प्रतिमा के सिर पर सातमुखवाला सर्पफण है यह तेईसवे तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ की प्रतिमा है। ३) तीसरी प्रतिमा के चरणों के समीप एक स्त्री दो बच्चों के साथ बैठी है, यह अंबिका देवी की मूर्ति है । यह देवी बाईसवे तीर्थकर श्री अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) की शासनदेवी है । अतः यह प्रतिमा श्री नेमिनाथ की है । ४) चौथी प्रतिमा के चरणों के नीचे पाद पीठ पर दो सिंहों की तथा दोनों सिंहों के मध्य में धर्मचक्र की आकृति है । अतः यह प्रतिमा चौवीसवे तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की है। ये चारों प्रतिमाएँ खड़गासन में खड़ी और नग्न है। मथुरा के देवनिर्मित सुपार्श्वनाथ के स्तूप मन्दिर में श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी। आजकल मथुरा तथा लखनऊ के पुरातत्व म्युजियमों में सुरक्षित है ।
१२) त्रिरत्न - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ये तीन रत्न कहे जाते हैं जिन्हें त्रिरत्न रत्नत्रय भी कहते है। इनके प्रतीक रूप में एक फलक मे एक ऊपर तथा दो नीचे छेद कर दिये जाते है। एसे प्रतीक मथुरा के कंकालीटीले से बहुत मिले है। मौर्यकाल के सिक्कों पर भी रत्नत्रय के चिन्ह मिले है ।
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