Book Title: The Jain 1988 07
Author(s): Natubhai Shah
Publisher: UK Jain Samaj Europe

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Page 181
________________ दर्शन - पूजन जिन मन्दिर दर्शन तथा प्रवेश-विधि : श्रावक अपने घर से निकलने के बाद मार्ग में यतना पूर्वक । घर (जीव-रक्षा, ईर्या-समिति पालन) तथा शुभ-भावों से भाबित से प्रयारण : होता हुअा अागे बढ़े और ज्योंही दूर से जिन-मन्दिर का तीर्थंकर परमात्मा की स्थापना निक्षेप रूप जिन प्रतिमा शिखर दिखाई दे, त्योंही उल्लसित हृदय से मस्तक झुकाते हुए के दर्शन-पूजन का एक मात्र ध्येय श्री तीर्थकर के स्वरूप को 'नमो-जिणाण' बोले। मन्दिर के निकट पाते पाते तो प्राप्त करना है, अतः घर से प्रयाण पूर्व श्रावक विचार करे कि सांसारिक विचारों का भी त्याग कर दे, और ज्योंही जिन मेरे देवाधिदेव राग-द्वेष से मुक्त बन कर अजरामर पद को मन्दिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करें, त्योंही उच्चारण पूर्वक पाये हैं, अतः संसार-भ्रमण के हेतु-भूत राग व द्वष से मुक्त 'निसीही' बोलें। इन 'निसीही' के द्वारा व्यक्ति सांसारिक बनने हेतु, साक्षात् तीर्थंकर के अभाव में, जिन प्रतिमा ही मेरे समस्त प्रवत्तियों के त्याग का नियम करता है। इस 'निसीहि लिए परम आधारभूत है, प्रभु-प्रतिमा मेरे लिए तो साक्षात् बोलने के बाद मन्दिर में किसी भी प्रकार की बातचीत न करें प्रभ ही है....! इत्यादि शुभ-भावनाओं से मन को सुवासित कर और प्रभ-भक्ति के अतिरिक्त संसार के विचार भी न करें। जिन मन्दिर दर्शनार्थ प्रयाण की तैयारी करे। प्रदक्षिणा व मुख्य द्वार प्रवेश : जिन-मन्दिर यह परम पवित्र स्थल है, अतः राग को जिन-मन्दिर में प्रवेश के बाद बायीं ओर से (मूल गभारे उत्पन्न करने वाले उद्भटवेश का त्याग करना चाहिये और के चारों ओर) रत्नत्रयी की प्राप्ति हेतु तीन प्रदक्षिणा दें। और स्वच्छ व शुद्ध वस्त्रों को पहनना चाहिये। जिसके बाद प्रदक्षिणा के अन्तर्गत यदि जिन-मन्दिर सम्बन्धी पुजारी प्रादि यदि मात्र दर्शन हेतु ही जाना हो तो दर्शन के योग्य सामग्री (वासक्षेप पूजा हेतु-वासक्षेप, अग्र पूजा हेतु-धूप दीप-अक्षत को सूचना करनी हो तो सूचना करें और उसके बाद मुख्य नेवेद्य-फल-रुपये प्रादि) साथ में ले जावें और यदि प्रभु-पूजा के गभारे के द्वार पर पुनः 'निसीही' बोले। इस 'निसीही' लिए जाना हो तो पूजा के योग्य स्वच्छ और सुन्दर कपड़े द्वारा मन्दिर सम्बन्धी कार्यों का त्याग किया जाता है। पहनकर पूजा की सामग्री (केसर, चंदन, कटोरी, धूप, दीप, उसके बाद प्रभु के दर्शन होने के साथ ही मस्तक झुकाकर, नवेद्य, फल, फूल, चावल, प्रांगी की सामग्री-वरक, बादला, हाथ-जोड़कर शुभ-भावपूर्वक, प्रभु के गुणों की तथा आत्मदोष प्राभूषण इत्यादि) यथा शक्ति साथ में लेकर जावे। को प्रकट करने वाली स्तुतियों द्वारा प्रभु की स्तवना करें । केसर, चंदन, धूप-दीप की सामग्री तो मन्दिर में प्रभु सन्मुख बोली जाने वाली कुछ स्तुतियां : होती ही है फिर घर से ले जाने का क्या प्रयोजन ? दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानम्, दर्शनं मोक्षसाधनम् ।। १ ।। उत्तर : श्रावक को मन्दिर में रही केसर आदि सामग्री कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति । से प्रभु-पूजा करना योग्य नहीं है। प्रभु को द्रव्य-पूजा तो प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः, पार्श्वनाथः श्रिये स्तुवः ।। २ ।। धनादि पर को मूर्छा को उतारने के लिए ही है, अतः वह पादिमं पृथिवीनाथ-मादिमं निष्परिग्रहम् । मुर्छा तभी उतर सकती है, जब श्रावक अपने स्व-द्रव्य से आदिम तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ।। ३ ।। प्रभु पूजा करे। स्वयं की शक्ति होते हुए भो मन्दिर में रही अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिता: सिद्धाश्च सिद्धिस्थताः। सामग्रो अथवा अन्य व्यक्ति को सामग्री से प्रभु-पूजा करना, प्राचार्या जिनशासनान्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः यह तो स्व-शक्ति को छुपाने को ही प्रवृत्ति है, जिसके फल श्रोसिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः स्वरूप धनादि द्रव्य की मूर्छा उतरने के बजाय बढ़ने पञ्चै ते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।४।। की ही है। सरस-शान्तिसुधारससागरम् । सार यही है कि यदि मोक्ष को तीव्र उत्कंठा हो और शुचितरं गुणरत्नमहागरम् । धनादि को मूच्र्छा उतारनी हो तो स्व-सामग्री से ही प्रभु पूजा भविकपकजबोधदिवाकरम् । करनो चाहिये। यदि स्वय शक्ति-हीन हो तो मन्दिर के प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरम् ।। ५ ।। अन्य कार्यादि करके भो व्यक्ति प्रभु-भक्ति का लाभ ले सकता __ उसके बाद प्रतिमाजी पर जहाँ-जहाँ बरक प्रादि लगाना है, अतः श्रावक को यथाशक्ति प्रभु-पूजा में स्व द्रव्य को खर्च हो, उस भाग पर बरास व चन्दन का विलेपन करें, तदुपरांत कर ही लाभ लेना चाहिये । भक्ति-भाव से प्रभुजी की सुन्दर अंग रचना कर । चन्दन 148 Jain Education Intemational 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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