Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 9
________________ ( ३ ) अध्ययके विषय आजायेंगें अर्थात् अब दो खंडोमें यह ग्रंथराज समाप्त हो जावेगा । इस ग्रंथके प्रकाशन में संस्थाने भारी व्यय उठाया है। ऐसे ग्रंथों का एक बार प्रकाशित होना ही कठिन है, बार बर होना तो असंभव ही है । और यह जैन तत्वज्ञानका महान् दार्शनिक ग्रंथ है । स्वाध्याय प्रेमियोंका बल हमें मिला तो हम शीघ्र ही अवशिष्ट भागों का भी प्रकाशन करेंगे । संस्थाने यह महान् कार्य अपने हाथ में लिया है। ऐसे ग्रंथराजोंका संपादन और प्रकाशन महान् साहस का विषय है। संस्थाकी विपुल धनराशि इस कार्य में प्रयुक्त हो रही है । संस्थाका संकल्प है कि परमपूज्य प्रातःस्मरणीय विश्ववंद्य आचार्यश्री की पूण्यस्मृति में प्रतिवर्ष कोई न कोई ग्रंथ प्रकाश में आकर हमारे स्वाध्यायप्रेमियोंको ज्ञानलाभ हो। इस एक ही ग्रंथके प्रकानमें यदि शक्ति क्षीण हो गई तो निरुःसाहका वातावरण निर्माण हो सकता है। इसमें भी विशेष बात यह है कि यह महान् ग्रंथराज भी हमारे करीब ५०० स्थायी सदस्योंको विनामूल्य भेंट में दिया जारहा है। करीब पांच सौ प्रतियों के इस प्रकार समाजप्रमुख व्यक्तियों के हाथ पहुंचने के बाद अवशिष्ट प्रतियों को मूल्य से खरीदकर स्वाध्याय करनेवालोंकी संख्या बहुत कम रह जाती है। अतः साधर्मी बंधुवोंसे निवेदन है कि वे हमारे इस महान् कार्य में निम्नलिखित प्रकार से मदत करें । (१) स्वाध्याय के लिए मंदिर, भुनभंडार, शिक्षा संस्थायें, महाविद्यालय आदिमें इस प्रवराज के सर्व भागोंको मंगाकर विराजमान करें। और जैन, अनेतर विद्वानोंको अध्ययनार्थं इसकी प्रतियों को भेंट करें । (२) इस ग्रंथ के प्रकाशन के लिए अपनी ओरसे यथेष्ट द्रव्यकी सहायता करें । (३) १०१ ) प्रदान कर ग्रंथमाला के स्थायी सदस्य बनें। स्थायी सदस्योंको ग्रंथमालासे प्रकाशित सर्व ग्रंथ-तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकारके सर्व वंडसहित भेटमें दिये जाते हैं । जैनतत्वज्ञानका अत्यंत सूक्ष्मता के साथ तलस्पर्शी विवेचन करनेवाला यह अभूत पूर्व ग्रंथ है। इसका अधिकसे अधिक प्रचारका अर्थ स्याद्वाददर्शनका उद्योत है। प्रसिद्ध तार्किक विद्वान् न्याय दिवाकर पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य की सुविस्तृत टीकासे विद्यानन्द स्वामी के अंतःस्पशनी मीमांसाको सुवर्ण के बीच रत्नकी शोभा आगई है। सर्वसाधारण स्वाध्यायप्रेमी की समझमें आवे इतना सरल ग्रंथ का प्रमेय बन गया है। हर एक ज्ञानपिपासुको इसका लाभ उठाना चाहिये । इस ग्रंथका समर्पण श्री परमपूज्य आचार्य कुंथुसागरजी महाराज परमपूज्य प्रातःस्मरणीय चारित्रचक्रवर्त आचार्य शांतिसागर महाराजके अन्यतम शिष्य थे। श्री आचार्य शांतिसागर महाराजने इस युग में दिगंबर तपस्वियों के मार्गको प्रशस्त करते हुए भ्रमणपरंपराकी विच्छिन्न कडीको पुनरुज्जीवित किया है । उन्होने अनेक विद्वान् संयनी शिष्योंको निर्माण किया। उनके संघ में

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