Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 02
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 11
________________ प्रमाण और नयरूप करणों से अधिगम रूप फल कथंचित् भिन्न है। यहाँ बौद्धों की मानी हुई प्रमाण फलव्यवस्था का और तदाकारता का खण्डन कर ज्ञानावरण के विघटन से ग्राह्य ग्राहकपन सिद्ध किया है। यथार्थ ज्ञान की साधकतम होने से भाव इन्द्रियाँ प्रमाण हैं। अज्ञाननिवृत्ति प्रमाण का अभिन्न फल है तथा हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धियाँ प्रमाण से भिन्न फल हैं। ज्ञान स्वरूप प्रमाण और नयों से स्व के लिए अधिगम होता है तथा वचनस्वरूप या शब्दस्वरूप प्रमाण-नयों से दूसरों के लिए अधिगम होता है। मति आदि पाँच ज्ञान हैं। अस्ति आदिक सप्त भंगों से प्रवृत्त रहा सात प्रकार का शब्द है। प्रश्नवशात् सात भंगों की प्रवृत्ति में कोई विरोध नहीं है। अनन्तर आचार्यश्री ने स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार सर्व व्यवस्था की योजना पर विस्तृत ऊहापोह किया है और एकान्तवादियों की आपत्तियों का निराकरण किया है। इस सूत्र के भाष्य में अनेक प्रासंगिक प्रकरणों को प्रस्तुत कर सप्तभंग प्रक्रिया को स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार प्रतिष्ठापित किया गया है। सूत्र 7 : संक्षेप से जीवादिक का अधिगम तो प्रमाण और नय से होता है किन्तु मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए इस सूत्र की रचना उमा स्वामी आचार्य ने की है वस्तु के जानने में उपयोगी निर्देशादि का कथन कर उनको शब्दस्वरूप और ज्ञानस्वरूप बताया गया है। सबसे पहले पदार्थों को निस्स्वरूप और अवक्तव्य मानने वाले बौद्धों के मत का खण्डन कर पदार्थों के निर्देश्य स्वरूप की सिद्धि की है। बौद्ध कोई सम्बन्ध भी नहीं मानते हैं। उनकी इस मान्यता का तर्कपूर्ण खण्डन करते हुए स्वस्वामिसम्बन्ध को दृढ़ता से सिद्ध किया है। बौद्ध साध्यसाधन भाव को भी नहीं मानते, उनकी इस स्थापना का सबल तर्कों से निरसन करते हुए साध्य-साधन भाव की सिद्धि की है। आधार-आधेय को न मानने वालों के प्रति द्रव्य गुण आदि का दृष्टान्त देकर अधिकरण सिद्ध किया है। सम्पूर्ण द्रव्यों को आश्रय देने वाला आकाश स्वयं अपना भी आश्रय है। व्यवहार नय से आश्रय-आश्रयी भाव है, निश्चय नय से सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं अपने आप में प्रतिष्ठित हैं। स्थिति की सिद्धि के लिए बौद्धों के क्षणिक एकान्त का खण्डन कर सन्तान, समुदाय आदि की व्यवस्था बताई है। सबको एक स्वरूप मानने वाले ब्रह्माद्वैतवादियों के प्रति हेतुओं से पदार्थों के नाना प्रकारों की सिद्धि की है। इस प्रकार प्रमाणस्वरूप निर्देश आदि से और उनके विषय स्वरूप निर्देश्यत्व आदि से अधिगति और अधिगम्यमानता की जाती है। सूत्र 8 ; तत्त्वार्थों के ज्ञान के लिए आचार्य उमा स्वामी ने इस सूत्र में तीसरे विस्तृत ढंग के उपाय बताये हैं। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने इस सूत्र के भाष्य में शून्यवाद या चार्वाक, वैशेषिक, ब्रह्माद्वैत आदि की स्थापनाओं को निरस्त कर सत्ता, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, विरह, परिणमन और अल्पबहुत्व का संक्षेप में विवेचन करते हुए कहा है कि विस्तार पूर्वक ज्ञप्ति के लिए अन्य ग्रन्थों के व्याख्यान देखने चाहिए। धवल, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में इस सूत्र के प्रमेय का विशद व्याख्यान है। यहाँ प्रथम अध्याय सम्बन्धी द्वितीय आह्निक पूर्ण होता है। परिशिष्ट में श्लोकानुक्रमणिका संकलित है।

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