Book Title: Tattvartha Sutram
Author(s): Ishvarchandra Shastri
Publisher: Ishvarchandra Shastri

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Page 86
________________ नवमोऽध्यायः गुप्तादिना सम्बरः॥ टीका। गुप्तीति। पूर्व स्मिन्नध्याये सपरिकरः बन्धो निगदितः। सम्पति अध्यायेऽस्मिन् सम्बरं वक्ति। प्रागुक्तसा काययोगादेः द्विचखारिंशद्विधसत्र आस्रवसा यो निरोधः स सम्बरः। गुप्तवादिभिः कास्रवसा निरोधो भवति । अत्रादिपदात् गुप्ति-समिति-धर्मानुपेक्षा परीषहजय-चारित्राणि आगमानुशासनात् सम्बरसा भेदोपभेदसहितानि ग्राह्याणि। एवमेव सभाष्य “सगुप्ति समित्यादि" सूत्रे प्रोक्तानि। अतोऽनयोरथं वैषम्याभावः। अत्रतु सक्षेपेणोक्तम् ॥१॥ সব্যাখ্যানুবাদ। পূর্বে অষ্টমাধ্যায়ে বন্ধ ও তাহার বিবরণ কথিত হইয়াছে। এই অধ্যায়ে সম্বরের লক্ষণ প্রভৃতি বলা যাইতেছে। গুপ্তি প্রভৃতি দ্বারা কর্ম আবের নিরােধ হয়। সুত্রোক্ত আদিশব্দ দ্বারা সমিতি, ধর্ম, অনুপ্রেক্ষা, পরীষহজয়, চারিত্র প্রভৃতি উপভেদের সহিত সম্বর প্রভেদ আগমনুসারে বুঝিতে হইবে। সভাষ্যসূত্রে উক্ত গুপ্তি প্রভৃতির পৃথক্ নাম উল্লিখিত আছে। পূর্বে কথিত কায়যোগাদির বিচত্বারিশ প্রকার অস্ৰবের নিরোধই সম্বর জানিতে হইবে। এই সম্বর গুপ্ত্যাদি উপায়ের দ্বারা উৎপন্ন হয় । ১। तपसा निर्जरापि ॥२॥ टीका। तपसेति। तपसा वक्ष्यमाणेन द्वादशविधेन निर्जरा, एवमपि शब्दात् सम्बरश्च समादिति। तथाच सभाष्यसूत्रम् “तपसानिर्जराचेति”। द्वादशविधतपोभिः सभाण्यसूत्रोक्तैः द्वे सम्बरनिजेरे भवतः। तत्रापि पुनः पृथक्स्पष्टरीत्या स त्रितं “समाग्योगनिग्रहोगुप्तिः” इति। सम्यग्दर्शनपूर्वक त्रिविधसा योगसा गुप्तिः। साच कायगुप्ति मनोगुप्ति ग्गुिप्तिश्चेति त्रिधेति। सभाष्यसत्रे तदभाष्ये च समित्यादीनां पृथग्लक्षणसू त्रितं तत्तयाख्यानञ्चास्ति । अत्र तु अप्रसृतोक्तिः॥२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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