Book Title: Tattvarth Varttikam Part 02 Author(s): Akalankadev, Mahendrakumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 9
________________ [ ] ve मूल पृ० हिन्दी पृ० मूल पृ० हिन्दी पृ० क्रिया ही काल नहीं ४८३ ६८८ भेदसे और संघातसे अचाक्षुप स्कन्ध वर्तना ही मुख्य ४८४ ६८६ चाक्षुष होता है ४४४ ६६७ स्पर्शरस गन्ध और वर्णवाले पुद्गल हैं ४८४ ६८१ द्रव्यका लक्षण ४६३ ६१८ स्पर्शादिके निर्देशक्रमकी सहेतुकता ४८४ ६६० सत्का लक्षण १६३ ६१८ शब्दबन्ध सौचम्य भादि पुद्गलकी पर्यायें४८५ ६१० उत्पाद व्यय और ध्रौव्यसे तादात्म्य व्यस तादात्म्य ४६५ ६६८ भाषात्मक शब्द-अक्षर अनक्षर रूप ४८ ६६० नित्यका लक्षण ४६६ ६६६ अभाषात्मक-वैस्त्रसिक प्रायोगिक अर्पित और अनपित विवक्षासे सिद्धि ४६७ ६६ प्रयोगज-तत वितत घन सौषिर पुद्गलोंका स्निग्धत्व और रूक्षत्वके कारण स्फोटवादका खंडन ४८६ ६६१ बन्ध होता है बन्ध-प्रायोगिक वैस्त्रसिक ४८७ ६६२ जघन्य गुणवालों में परस्पर बन्ध नहीं ४६८ ७०० प्रायोगिक-जीवाजीवविषयक अजीव गुणांकी समानता होनेपर सरशों में विषयक ४८७ ६६२ भी बन्ध ४६८ ७०० सौम्य-अन्त्य आपेक्षिक दो अधिक गुणवालोंमें बन्ध स्थौल्य-अन्त्य आपेक्षिक बन्धकालमें अधिक गुणवाला पारिसंस्थान-इत्थंलक्षण अनित्थंलक्षण णामक होता है ५०० ७०१ भेद-उत्कर चूर्ण खंड चूर्णिका प्रतर 'बन्धे समाधिको पारिणामिकौ' इस सूत्र और अणुचटन ४८६ - ६६३. पाठकी समीक्षा ५०० ७०१ अन्धकारका लक्षण ४८६ ६६३ दम्यका लक्षण ५०० ७०२ छाया-वर्णादिविकार और प्रतिबिम्बरूप ४८९ ६६३ गुणार्थिकनय पृथक् नहीं ५०१ ७०२ प्रातपका लक्षण ४८६ ६६४ - काल भी द्रव्य है ५०१ ७०३ उद्योतका लक्षण ४८६ ६६४ काल अनन्तसमयवाला है क्रियाके दस भेद ४६० ६६४ गुणका लक्षण ५०२ ७०३ च शब्द से नोदन अभिघात श्रादिका परिणामका लक्षण ५०३ ७०३ ग्रहण ४६१ ६६५ अनादि और आदिमान् परिणाम ५०३ ७०४ पुद्गल अणु और स्कन्ध रूप ४६१ ६६५ अणुका लक्षण ४६१ ६६५ - छठवाँ अध्याय स्कन्धका लक्षण ४६१ ६६५ योगका लक्षण ५०४ ७०५ 'कारणमेव तदन्त्यम्' इस परमाणु मनोयोगका लक्षण ५०५ ७०५ लक्षणकी समीक्षा ४६१ ६६५ वाग्योगका लक्ष्ण ५०५ ७०५ परमाणु सर्वथा नित्य नहीं ४६२ ६६६ काययोगका लक्षण ५०५ ७०५ अणु एक रस एक गन्ध एक रूप और ध्यानसे यह योग भिन्न है ५०५ ७०६ दो स्पर्शवाला है ४६२ ६६६ योग ही आस्रव है ५०६ ७०६ स्कन्ध स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश ४६३ ६६६ योग प्रणालिकासे कमों का आगमन ५०६ ७०६ भेद, संघात और भेद संघातसे शुभ योगसे पुण्यास्रव अशुभयोगसे स्कन्धोंकी उत्पत्ति ४६३ ६६७ पापास्रव ५०६ ७०७ द्विप्रदेशी त्रिप्रदेशी श्रादि स्कन्धोंकी अशुभ काययोग ५०६ ७०७ उत्पत्ति ४६४ ६६७ अशुभ वाग्योग ५०६ ७०७ भणु भेद से ही होता है। ४६४ ६६७ अशुभ मनोयोग ५०६ ७०७Page Navigation
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