Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 180
________________ * तारण-वाणी. [१७३ प्रश्न-पंचाचारादि गुप्ति समिति जो जो कार्य संवर-निर्जरा रूप कहे हैं यद्यपि उन कार्यों को मात्र व्यवहारालम्बी जीव भी ग्रहण करता है तथापि उसके संवर निर्जरा क्यों नहीं होती ? उत्तर-जो कार्य संवर-निर्जरा रूप कहे हैं वे व्यवहारालम्बी ( मिध्यादृष्टि ) जीव के शुभ भावरूप नहीं हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि के शुभभाव रूप समझना क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव शुभ भाव को धर्म मानता है तथा उसे धर्म में सहायक मानता है, इसीलिये उसके शुद्धता प्रगट नहीं होती और संवर-निर्जरा की प्राप्ति नहीं होती। जिन जीवों के शुद्ध निश्चय नय का अलंगन हो वे ही सम्यग्दृष्टि है, वे शुभ भाव को धर्म नहीं मानते। उनके रागद्वेष दूर करने, पुरुष र्थ करने पर अशुभ राग दूर होकर जो शुभ राग रह जाता है उसे वे सहायक भी नहीं मानते; इमीलिये वे अनुक्रम से वीतराग भाव बढ़ाकर उस शुभ राग भाव को भी दूर करते हैं। ऐसे जीवों को उनके इस व्यवहार को उपचार से संवर-निर्जरा का कारण कहा है। यह उपचार भी ज्ञानी के शुभ भाव रूप व्यवहार के लागू होता है क्योंकि उनके उस व्यवहार की हेयबुद्धि है, अत: वे उसे दूर करते हैं। अज्ञानी तो शुभ व्यवहार को ही धर्म मान कर-भला मानकर ग्रहण करता है, इसीलिये उसका शुभ राग उपचार से भी संवर-निर्जरा का कारण नहीं कहलाता । वास्तव में तो शुद्ध भाव हो संवर-निर्जरा रूप है । यदि शुभ भाव यथार्थ में संबर-निर्जरा का कारण हो तो केवल व्यवहारावलम्बी के समस्त प्रकार का निरनिचार व्यवहार है इसलिये उसके शुद्धता प्रगट होनी चाहिये । परन्तु राग संवरनिर्जरा का कारण ही नहीं है । अज्ञानी शुभ भाव को धर्म मानता है इस वजह से तथा शुभ करते करते धर्म होगा ऐसा मानने से और शुभ-अशुभ दोनों दूर करने पर धर्म होगा ऐसा नहीं मानने से उसका समस्त व्यवहार निरर्थक है, इसीलिये उसे व्यवहाराभासी (मिथ्याष्टि) कहा है । भव्य तथा अभव्य जीवों ने ऐसा व्यवहार (जो वास्तव में व्यवहाराभास है।) अनंतवार किया है और इसके फल से अनन्तवार नवमें ग्रैयेयक स्वर्ग तक गया है, किन्तु इससे धर्म नहीं हुआ। धर्म तो शुद्ध निश्चय स्वभाव के आश्रय से होने वाले रत्नत्रय से ही होता है। यद्यपि अभव्य जीव भी शील और तप से परिपूर्ण तीन गुप्ति और पांच समितियों के प्रति सावधानी से वर्तता हुआ अहिंसादि पांच महाव्रत रूप सावधानी से व्यवहार चारित्र करता है तथापि वह चारित्र रहित ( निश्चारित्र ) अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है क्योंकि निश्चय चारित्र के कारण रूप ज्ञान-श्रद्धान से शून्य है, रहित है । निश्चय सम्यग्ज्ञान-श्रद्धा के बिना वह सम्यक्चारित्र नाम नहीं पाता, इस अपेक्षा निश्चारित्र (चारित्र रहित ) कहा है। नोट-यहां अभव्य जीव का उदाहरण दिया है किंतु यह सिद्धांत व्यवहार का आश्रय लेने वाले समस्त जीवों के एक सरीखा लागू होता है। जो शुद्धात्मा का अनुभव है सो यथार्थ मोक्षमार्ग है । इसीलिये उसको निश्चय कहा है। व्रत, तपादि कोई सच्चे मोक्षमार्ग नहीं, किन्तु निमित्तादिक की अपेक्षा से उपचार से उसे मोक्ष

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