Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 189
________________ १८२] * तारण-वाणी संयम तो बना रहे परन्तु शुद्ध स्वभाव में-शुद्धोपयोग में पूर्ण रूप से लीन न हो सके उसे संज. लन कषाय कहते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव आत्मस्वभाव की प्रतीति करके अज्ञान मोह को जीतकर राग द्वेष को त्याग देता है अर्थात् राग द्वेष का स्वामी नहीं होता; वह भरत चक्रवर्ति की भाँति वैभव-संयोग में रहता हुआ भी 'जिन' है। चौथे, पांचवें गुणस्थान में रहने वाले जीवों का ऐमा स्वरूप है । सम्यग्दर्शन का माहात्म्य कैसा है यह बताने के लिये अनन्त ज्ञानियों ने यह स्वरूप कहा है। इन सम्यग्दृष्टि जोवों के अपनी शुद्ध पर्याय के अनुमार शुद्धता के प्रमाण में संवर-निर्जरा होती है। उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट हुआ कि चौथे गुणस्थान से ही यह जीव 'जिन' पद का अधिकारी हो जाता है। अन्तरात्मा मानो 'जिन', इसकी तोन श्रेणियां (१-अत्रत सम्यग्दृष्टि, २-देशवतो, ३-महावतो ) होती है। परमात्मा मानी जिनवर, जिनेन्द्र व सिद्ध । जहां से यह जीव कषायों को जीतना प्रारम्भ करता है वहीं से जिन पद हो जाता है। चौथे गुणस्थान से ही यह जीव कषायों को जीतना प्रारम्भ कर देता है अर्थात् पुरुषार्थ करने लगता है। ___ सम्यग्दर्शन के माहात्म्य को नहीं समझने वाले मिध्यादृष्टि जीवों की बाह्य संयोगों और बाह्य त्याग पर दृष्टि होती है, इसीलिये वे उपरोक्त कथन का भाशय नहीं समझ सकते और सम्यग्दृष्टि के अन्तरंग परिणमन को वे नहीं समझ सकते । इसलिये धर्म करने (आत्मकल्याण करने ) के इच्छुक जीवों को संयोग दृष्टि छोड़कर वस्तुस्वरूप को समझने की और यथार्थ तत्त्वज्ञान प्रगट करने की आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उन पूर्वक सम्यक् चारित्र के बिना संवर-निर्जरा प्रगट करने का अन्य कोई उपाय नहीं है। इस जगत में दो ही मार्ग है, मोक्ष मार्ग और संसार मार्ग । सम्यक्त्व मोक्ष मार्ग को जड़ है और मिथ्यात्व संसार की जड़ है। जो जीव संसार मार्ग से विमुख हों वे ही मोक्ष मार्ग प्राप्त कर सकते है। मुमुक्षु जीवों को मोक्षमार्ग प्रगट करने के लिये उपरोक्त पारे में यथार्थ विचार करके संवर निर्जरा तत्त्व का स्वरूप बराबर समझना चाहिये । जो जीव अन्य पाँच तत्त्वों सहित इस संवर तथा निर्जरा-तत्व की श्रद्धा करता है, जानता है वह अपने चैतन्य स्वरूप की ओर मुककर सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तथा संसार चक्र को तोड़कर अल्प काल में वीतराग चारित्र को प्रगट कर निर्वाण-मोक्ष को प्राप्त करता है। यद्यपि केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय यथाख्यात चारित्र हो गया है तथापि अभी परम

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