Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ * तारण-वाणी * [ २०५ दिखाई दे रहा है । यह सब विचार क्या जातिस्मरण से कम हैं ? क्या इसमें भी तुझे शंका है कि तूने अनंत जन्मों को ( भत्रों को ) धारण नहीं किया ? और उनमें होने वाले अवार दुःखों को नहीं भोगा ? यदि तू एक बार भी विवेकपूर्वक उन भवों तथा उन सम्बन्धी होने वाले सुख-दुःखों की अन्तर का विचार करें तो आज भी वे विचार जातिस्मरण का काम कर सकते हैं, सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकते हैं । किन्तु जब तू विचार करे तब ही तो काम बने; और तेरी यह समझ में आये कि इस जीव का काम न तो इन्द्र जैसे भांगों से, न चक्रवर्ती जैसे अधिकार से हो चला और मदन करते हुए नरक तथा तिर्यंच योनि के दुःखों को भोगने पर भी उनसे सर्वथा छुटकारा नहीं हुआ, फिर भी वे सामने खड़े ही हैं, काम तो एकमात्र सम्यक्त्व से ही चलने वाला है, अतः जैसे बने वैसे लाख प्रयत्नों द्वारा सभ्यत्व को प्राप्त कर । शंका- यदि वेदना का अनुभव सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है तो सभी नारकियों को सम्यक्त्व हो जाना चाहिए, क्योंकि सभी नारकियों के वेदना का अनुभव होता है । समाधान - वेदना सामान्य सम्यक्त्व को उत्पत्ति का कारण नहीं है, किन्तु जिन जीवों के ऐसा उपयोग होता है कि मिध्यात्व के कारण इस वेदना की उत्पत्ति हुई है, उन जीवों के वेदना सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है, दूसरे जीवों के वेदना सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण नहीं होता । वेदना को भी सम्यक्त्व की उत्पत्ति का एक कारण कहा है और उस वेदना की बात नारकी - जीवों के सम्बन्ध से ली है। क्या नरक वेदना ही सम्यक्त्व का कारण है ? मनुष्य तथा तिर्यंच गति के दुःख क्या कम हैं ? और क्या इनसे सम्यक्त्व नहीं होता ? होता है; किन्तु यदि तू इन दुःखों का जो कारण मिथ्यात्व है उस मिध्यात्व का विचार करे तो आज भी तेरे ये दुःख सम्यउत्पत्ति के कारण हो सकते हैं। परन्तु तू तो साता श्रसाता को सातावेदनी और असातावेदनी का उदय कहकर टाल देता है, यह विचार कभी नहीं करता कि साता - असाता वेदनीय का उदय आया कहाँ से! यह भी तो हमारे मिध्यात्व का ही फल है । यदि मैंने इस मिध्यात्व का नाश कर दिया होता तो इस साता - असाता के चक्कर से ही छुटकारा पा जाता। मूल की भूल वाली बात को नहीं देखता, ऊपर ऊपर की बातों को देखता है और रोता पीटता रहता है । हे भव्य ! यदि इस रोने-पीटने से छुटकारा पाना हो तो इस मिध्यात्व का समूल नाश करदे। इसके नाश करते ही साता - असातावेदनी अपने आप क्षीण हो जायगी और तू सच्चे आत्मीय आनन्द का भोक्ता बन जायगा | तेरी पाई हुई यह मनुष्यपर्याय सार्थक हो जायगी । अज्ञानी मनुष्य सातावेदनी को मीठा और असातावेदनी को कडुआ मानता है, किन्तु तत्त्व

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226