Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 215
________________ २०८ ] * तारण-वाणी * जो घोर अन्धकार हजारों कुशली फावड़ों के चलाने पर दूर नहीं किया जा सकता वह दियासलाई की एक सींक से दूर हो जाता है; इसी तरह की श्रद्धा हमें अपने अन्तर- चात्मज्ञान में करनी चाहिए । अनन्तकाल में दुर्लभ मनुष्यत्व प्राप्त हुआ है और सत्य को सुनने का सुयोग मिला है। यदि सत्य को एकबार यथार्थतया स्वीकार करके सुने तो अनन्त संसार टूट जाये, संसारभ्रमण मिट जाये । धर्मी जीव के उत्कृष्ट पवित्र स्वभाव का बहुमान होता है, इसलिये निमित्त रूप से बाहर मुख पर सौम्यता, प्रसन्नता और विशेष प्रकार की शांति सहज होती है । ज्ञानी पुरुष बाह्य में भी अज्ञानी से अलग ही मालूम होता है। उसके वचनों में और चे मैं निहता और धैर्य दिखाई देता है और उसमें कर्तृत्व भाव तथा अहंभाव नहीं होता । जैसे डिब्बी के संयोग में ( रखा हुआ ) होरा अजग ही है उसी प्रकार देहादि संयोग में रहने वाला भगवान - श्रात्मा उससे अलग ही है; इसलिये उस पर लक्ष देने से तेरा स्वाधीन सुग्व प्रगट होगा । जैसे दियासलाई में वर्तमान अवस्था में उष्णता और प्रकाश प्रगट नहीं हैं तथापि वे शक्ति रूप से वर्तमान में भी भरे हुए हैं, ऐसी श्रद्धापूर्वक उसे यदि योग - विधि से घिसा जाये तो उसमें सेनि प्रगट होती है, इसी प्रकार आत्मा में तीन लोक को प्रकाशित करने वाली केवलज्ञान ज्योतिरूप शक्ति भरी हुई है । चौंसठ पुटी लेंड़ी पीपल में जो रसायन शक्ति प्रगट होती है वह उसी में थी, बाहर के घिसने बाले पत्थर में से नहीं भाती है, इसी तरह आत्मा में केवलज्ञान शक्ति मौजूद है, कहीं बाहर देव गुरु शास्त्र में से नहीं आती है, यही स्वतन्त्रता की परख है । लोग कुल देवतादि को सर्व समर्थ, रक्षक मानते हैं, किन्तु यह तो विचार कर कि तुझ में कुछ दम है या नहीं ? तू नित्य है या अनित्य ? स्वाधीनता के लक्ष से अन्दर तो देख ! यदि आत्मा में पूर्ण शांति, और अपार ज्ञान-सुख न हो तो अशांति और पराश्रयता का दुःख ही बना रहे । यदि स्वभाव में सुख न हो तो चाहे जितना पुरुषार्थ करने पर भी वह प्रगट नहीं हो सकता, किन्तु ऐसा नहीं है । व्यवहार का उपदेश तो अज्ञानी जीवों को परमार्थ समझाने के लिये किया है, किन्तु ग्रहण करने योग्य तो मात्र निश्चय ही है 1 व्यवहार का उपदेश देने वाले अनेक स्थल हैं, किन्तु जिससे जन्म-मरण दूर हो जाये,

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