Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 211
________________ २०४] • तारण-वाणी आत्मा ही है, उसी को भिन्न भिन्न नामों से कहा जाता है। केवली पद, सिद्ध पद, या साधु पद यह सब एक आत्मा में ही समाविष्ट होते हैं। समाधि मरण, आराधना इत्यादि नाम भी स्वरूप की स्थिरता ही है । इस प्रकार प्रात्मस्वरूप की समझ ही सम्यग्दर्शन है, और यह सम्यग्दर्शन ही मर्व धमों का मूल है, सम्यग्दर्शन ही अ.त्मा का धर्म है तथा सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मार्ग है, पहली सीढ़ी है। जीव के शुभाशुभ भाव-विकारी भावों के कारण जीव का अनादिकाल से परिभ्रमण हो रहा है उसका मूल कारण मिध्यादर्शन है। इसलिये भव्य जीवों को मिथ्यादर्शन दूर करके सभ्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । सम्यग्दर्शन का बल ऐसा है कि उससे क्रमशः सम्यक्चारित्र बढ़ाता जाता है और चारित्र की पूर्णता करके परम यथाख्यात चारित्र की पूर्णता करके, जीव सिद्ध गति को प्राप्त करना है। . देव गुरु धर्म के श्रद्धान में हीन बुद्धि मनुष्य को ऐसा भाषित होता है कि अरहंत देवा-- दवादि को ही मानना चाहिए और अन्य को नहीं मानना चाहिये, इतना ही सम्यक्त्व है, किन्तु वहाँ उसे जीव अजीव के बंध-मोक्ष के कारण कार्य का स्वरूप भासित नहीं होता और उससे मोक्ष माग रूप प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है, और जीवादि का श्रद्धान हुए बिना मात्र उपरोक्त इसी श्रद्धान में सन्तुष्ट होकर अपने को सम्यष्टि माने व कुदेवादि के प्रति द्वेष रखे किन्तु रागादि छोड़ने का उद्यम न करे, ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है, मिथ्यादृष्टिपना है । शंका-सभी नार की जीव विभंग ज्ञान के द्वारा एक दो या तीन आदि भव जानते हैं, उससे सभी को जातिस्मरण होता है, इसलिये क्या सभी नारकी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेंगे ? समाधान- सामान्यतः भवस्मरण ( आतिस्मरण ) द्वारा सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती किन्तु पूर्व भव में धर्मबुद्धि से किये हुये अनुष्ठान विपरीत (विफल) थे, ऐसी प्रतीति प्रथम सम्यस्त्र प्राप्ति का एक कारण कहा है। अगले भव की स्मृति आ जाने को ही तो जातिस्मरण कहते हैं और उसे भी सम्यक्त्व प्राप्ति का एक कारण कहा है; किन्तु हे जीव ! तू यदि अनुभव से विचार करे तो एक अगले भव की स्मृति क्या, अनन्त भवों के सम्बध में भी यह विचार कर सकता है कि इस जीव ने अनेक वार सातवें महातम नरक की यातना भी भोगी और अनेकबार नवप्रैवेयक स्वर्ग के सुखों को भी भोगा, जो कि सोलह स्वर्गों के ऊपर हैं तथा पुण्य-पाप के फलस्वरूप इन दोनों के बीच की सुखदुःख रूप प्राय: सभी भवस्थानों को प्राप्त हुआ और उनके अनुसार बड़े से बड़े सुख तथा महान् से महान् दुःखों को भोगा, फिर भी भाज तक अन्त नहीं पाया; आगे चलकर भी वही पहाड़ सामने

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