Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 187
________________ १८०] * तारण-वाणी से भेद नहीं, अर्थात् दोनों प्रकार के भाव 'अधर्म' हैं। अधर्म के मानी प्रात्मधर्म नहीं ऐसा जानना। तीत्र कषाय से शुभ प्रकृति का रस तो घट जाता है और असाता वेदनीयादिक अशुभ प्रकृति का रस अधिक हो जाता है, मंद कषाय से (शुभ भाव से ) पुण्य प्रकृति में रस बढ़ता है और पाप प्रकृति में रस घटता है । इसलिये स्थिति तथा रस ( अनुभाग ) की अपेक्षा से शुभ परिणाम को पुण्यास्रव और अशुभ परिणाम को पापासूत्र कहा है । . शुभ योग के निमित्त से ज्ञानावरणी आदि अशुभ कर्म भी बँधते हैं । इसका स्पष्टीकरण शुभ योग से शुभ और अशुभ योग से अशुभ कर्मों का बँध तो होता ही है किन्तु कभी कभी शुभ योग में अशुभ कर्म का भो बँध हमारी अज्ञानता से बँध जाता है। जैसे-धार्मिक (रूढ़ि ) भावना से किसी को मंदिर आने से रोकना, शास्त्र नहीं पढ़ने देना, धर्म काम के लिये किसी को सताकर उसका द्रव्य ले लेना अथवा दबाकर दान करा देना या अपनी धार्मिक साधनाओं के निमित्त दूसरों को कलेशित कर देना व अपने भावों को बिगाड़ लेना, धर्म प्रचार की भावना से मतपुष्टि कारक असन ग्रन्थों का प्रकाशन करना अथवा असत् उपदेश करना, दान, पूजादि करके मान-प्रतिष्ठा और स्वादि सुख-भोगों की इच्छा करना, धर्मकार्य करने हेतु अन्याय से द्रव्योपार्जन करना और अपनी कुत्सित भावनापूर्ति के लिये धर्म कार्य करना व पुण्य-कार्य से पापों का क्षय हो जाता है इस विचार से पाप काय करते रहना और उनके क्षय होने की भावना से धर्म कार्य करते रहना, इत्यादि इत्यादि, शुभ योग से अशुभ कर्म बंध जाते हैं। पुण्य करने से बँध हुए पाप कर्मों की निर्जरा नहीं होती। हाँ, पाप कर्मों का रस मंद पड़ जाता है और पुण्य का बध तो होता ही है । ध्यान रहे, रस मंद पड़ जाना भी बहुत बड़ी बात है । और इसी तरह पाप करने से पुण्य कर्मों की निर्जरा नहीं होती, परन्तु उसका रस मंद पड़ जाता है और पाप कर्म का बंध तो होता ही है । जो यह साधारण नहीं बहुत बड़ी हानि करने वाली बात है। तात्पर्य यह कि पुण्य कर्म से डबल लाभ और पाप कर्म से डबल हानि होती है। अनः हमारी संसार यात्रा सुख से बीते इसलिये पाप कार्य छोड़कर निरन्तर पुण्य-काय करना चाहिए । और यदि हम संसार से छूटकर मोक्षप्राप्ति करना चाहते हैं तो पुण्य करने से ही नहीं बट जायेंगे, इसके लिये हमें पुण्य की भी आकांक्षा छोड़कर प्रात्म-धर्म करना होगा । विना आत्मधर्म की साधना किये मोक्षप्राप्ति न होगी। वीतराग परिणति से प्रात्म-धर्म होता है। पुण्य परिणति से पुण्य-बँध और पाप परिणति से पाप का बंध होता है। वीतराग परिणति, अमृत तुल्य मीठा स्वाद देती है, आत्मानन्द का भोग कराती और मोक्ष प्राप्त कराती है। जब कि पुण्य परिणति केवल स्वर्ण के समान शोभायमान है, संसारिक इन्द्रिय

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