Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 190
________________ * तारण-वाणी [ १८३ यथाख्यात चारित्र नहीं हुआ। कषाय और योग अनादि से अनुसंगी ( साथी ) हैं तथापि प्रथम कषाय का नाश होता है, इसीलिये केवली भगवान के यद्यपि वीतरागता रूप यथाख्यात चारित्र प्रगट हुआ है तथापि योग के व्यापार का नाश नहीं हुमा । योग का परिस्पंदन रूप व्यापार परम ययाख्यात चारित्र में दूषण उत्पन्न करने वाला है। इस योग के विकार को क्रम क्रम से भाव निर्जरा होती है । इस योग के व्यापार की संपूर्ण भाव निर्जरा हो जाने तक तेरहवां गुणस्थान रहता है। तेरहवें गुणस्थान में संसारित्त्व रहने का यथार्थ कारण यह है कि वहाँ जीव के गुण गुण का विकार है तथा जीव के प्रदेशों की योग्यता उस क्षेत्र में (शरीर के साथ) रहने की है, तथा जीव के अव्यावाध, निर्नामो, निर्गोत्री और अनायुषी श्रादि गुण अभो पूर्ण प्रगट नहीं हुआ। इस प्रकार जीव अपने ही कारण से संसार में रहता है । वास्तव में जड़ अघाति कर्म के उदय के कारण या किसी पर के कारण से जीव संसार में रहता है, यह मान्यता बिल्कुल असत् है। यह तो व्यवहार कथन मात्र है कि-'तेरहवें गुणस्थान में चार अघाति कर्मों का उदय है इसीलिये जीव सिद्धत्व को प्राप्त नहीं होता' जीव के अपने विकारी भाव के कारण संसार होने से तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में भी जड़ कर्म के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बध कैसा होता है यह बताने के लिये कर्मशास्त्रों में ऊपर बताये अनुसार व्यवहार कथन किया जाता है । वास्तव में कर्म के उदय सत्ता इत्यादि के कारण कोई जोव संसार में रहता है यह मानना सो, जीव और जड़ कर्म को एकमेक मानने रूप मिथ्या मान्यता है । शाखों का अर्थ करने में अज्ञानियों की मूलभूत भूल यह है कि व्यवहार नय के कथन को वह निश्चय नय का कथन मानकर व्यवहार को ही परमार्थ मान लेता है। यह भूल दूर करने के लिये प्राचार्य ने मोक्षशास्त्र के प्रथम अ० के छह सूत्र में प्रमाण तथा नय का यथार्थ ज्ञान करने की आज्ञा की है। इसीलिये जिज्ञासुत्रों को शाबों का कथन किस नय से है और इसका परमार्थ (भूतार्थ-सत्यार्थ) अर्थ क्या होता है यह यथार्थ समझकर शास्त्रकार के कथन के मम को जान लेना चाहिये, किन्तु भाषा के शब्दों को नहीं पकड़ना चाहिये । इस अज्ञान को दूर करने के लिये समयसार जी प्रन्थ में गाथा ३२४, ३२५, ३२६ कही हैं। ___ जीव में योग गुण का विकार होने पर तथा अव्यावाधाधि गुणों में विकार होने पर भी और परम यथाख्यात के चारित्र हुये बिना, जीव की शुद्ध दशा प्रगट हो जायगी जो कि अशक्य है; यही कारण है कि केवली भगवान को भी निरोध करना पड़ता है तभी वे सिद्ध अवस्था को प्राप्त यह नियम है कि जिस समय जो जीव अपने उपादान की जाति से (भात्मपुरुषार्थ से ) धर्म (आत्मधर्म ) प्राप्त करने को योग्यता प्राप्त करता है उस समय उस जीव के इतना पुण्य का

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