Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 205
________________ १९८] * तारण-पाणी उकताहट नहीं होती । नाटक का रुचिवान मनुष्य नाटक में 'वन्स मोर' कहकर अपनी रुचि वाली वस्तु को बारबार देखता है। इसी प्रकार जिन भव्य जीवों को प्रात्मरुचि हुई है और जो श्रात्मकल्याण करने को तत्पर हुए हैं वे बारंबार रुचिपूर्वक प्रति समय खाते-पीते, चलते-फिरते, सोतेजागते, उठते-बैठते, बोलते-चालते, विचार करते हुए निरंतर श्रुत का ही अवलंबन स्वभाव के लक्ष से करते हैं. उसमें किसी काल या क्षेत्र को मर्यादा अर्थात् बहाना नहीं करते । उन्हें श्रुतज्ञान को रुचि और जिज्ञामा ऐसी जम गई है कि वह कभी भी नहीं हटती । ऐमा नहीं कहा है कि अमुक समय तक अवलम्बन करना चाहिये और फिर छोड़ देना चाहिये, किन्तु श्रुतज्ञान के ( शास्त्रम्वाध्याय ) के अवलम्बन से प्रात्मा का निर्णय करने को कहा है। जिसे सच्ची तत्त्व की रुचि हुई है वह दूसरे सब कार्यों की प्रीति को गौण ही कर देता है। अर्थात उसकी स्वाभाविक रुचि सबसे हट जाती है। प्रात्मा की प्रीति होते ही तत्काल खाना पीना सब छूट जाय ऐसा नियम नहीं है, किन्तु उस ओर की रुचि तो अवश्य कम हो ही जाती है । परमें से सुखबुद्धि उड़ जाय और सबमें एक आत्मा ही आगे रहे, इसका अर्थ यह है कि निरन्तर आत्मा की ही तीवाकांक्षा और चाह होती है। ऐसा नहीं कहा है कि मात्र श्रुतज्ञान को सुना ही करे, किन्तु श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा का निर्णय करना चाहिये । श्रुतावलम्बन की धुन लगने पर वहां देव गुरु शास्त्र, धम, निश्चय व्यवहार इत्यादि अनेक प्रकार से बातें आती हैं, उन सब प्रकारों को जानकर एक ज्ञानस्वभाव प्रात्मा का निश्चय करना चाहिये । उसमें भगवान कैसे हैं, उनके शास्त्र कैसे हैं और वे क्या कहते हैं। इन सबका अवलम्बन यह निर्णय कराता है कि तू ज्ञान है, भात्मा ज्ञानस्वरूपी हो है, ज्ञान के अतिरिक्त वह दूसरा कुछ नहीं कर सकता। देव गुरु शास्त्र कैसे होते हैं और उन्हें पहिचानकर उनका अवलम्बन लेने वाला स्वयं क्या समझा है, यह इसमें बताया है। तू ज्ञानस्वभावी भात्मा है, तेरा स्वभाव जानना ही है, कुछ पर का करना या पुण्य पाप के भाव करना तेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार जो बताते हों वे सच्चे देव गुरु शास्त्र हैं, और इस प्रकार जो समझता है वही देव गुरु शास्त्र के अवलम्बन से श्रुतज्ञान को (शास्त्रज्ञान को ठीक ठीक ) समझा है। किन्तु जो राग से, निमित्त से धर्म मनवाते हों और जो यह मनवाते हों कि आत्मा शरीराश्रित क्रिया करता है व जड़ कर्म प्रात्मा को हैरान करते हैं वे देव गुरु शात्र सच्चे नहीं हैं। जो शरीरादि सर्व पर से भिन्न ज्ञान-स्वभाव प्रात्मा का स्वरूप बतलाता हो और यह बतलाता हो कि पुण्य पाप का कर्तव्य पात्मा का नहीं है वही सत् शास्त्र है, वही सच्चा देव है

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