Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 208
________________ • तारण-वाणी. [२०१ धर्म है । धर्म से ही संसार का अंत होता है। शुभभाव से धर्म नहीं होता और धर्म के बिना संसार का अन्त नहीं होता। धर्म तो आत्मा का स्वभाव है, इसलिये पहिले स्वभाव ही समझना चाहिये । प्रश्न-यदि स्वभाव समझ में न आये तो क्या करना चाहिये ? और यदि उसके सम्बन्ध में देर लगे तो क्या अशुभ भाव करके दुर्गति का बन्ध करना चाहिये ? क्योंकि आप शुभ भावों से धर्म होना तो मानते नहीं, उसका निषेध करते हैं । उत्तर-पहिले तो, यह हो ही नहीं सकता कि यह बात समझ में न आये । हां, यदि समझने में देर लगे तो वहां निरन्तर समझने का लक्ष मुख्य रखकर अशुभ भावों को दूर करने काशुभ भाव करने का निषेध नहीं है, किन्तु मिथ्या श्रद्धा का निषेध है । यह समझना चाहिये कि शुभ भाव से कभी धर्म नहीं होता। जब तक जीव किसी भी जड़ वस्तु की क्रिया को व राग की क्रिया को अपनी मानता है तथा प्रथम व्यवहार करते करते बाद में निश्चय धर्म होगा ऐसा मानना है तब तक वह यथार्थ समझ के मार्ग पर नहीं है, किन्तु विरुद्ध में है। सुख का मार्ग सच्ची समझ और विकार का फल जड़___ यदि आत्मा की सच्ची रुचि हो तो समझ का मार्ग मिले बिना न रहे। यदि सत्य चाहिये हो, सुख चाहिये तो यही मार्ग है। समझने में भले देर लगे किन्तु सच्ची समझ का मार्ग तो ग्रहण करना ही चाहिये । यदि सच्ची समझ का मार्ग प्रहण करे तो सत्य समझ में आये बिना रह ही नहीं सकता। यदि इस मनुष्य देह में और सत् समागम के इस सुयोग में भी सत्य न समझे तो फिर ऐसे सत्य समझने का सुअवसर नहीं मिलता। जिसे यह खबर नहीं है कि मैं कौन हूँ और जो यहां पर भी स्वरूप को चूक कर जाता है वह अन्यत्र जहाँ जायगा वहाँ क्या करंगा ? शांति कहाँ से लायगा ! कदाचित् शुभ भाव किये हों तो उस शुभ का फल जड़ में जाता है, प्रात्मा में पुण्य का फल नहीं पहुँचता। जिसने आत्मा की चिन्ता नहीं की और जो यहीं से मूढ़ हो गया है इसलिये उन रजकणों के फल में रजकणों का ही संयोग मिलेगा। उन रजकणों के संयोग में अत्मा का क्या लाभ है ? आत्मा की शान्ति तो आत्मा में ही है, किन्तु उसकी चिन्ता कभी भी की नहीं है। असाध्य कौन है ? और शुद्धात्मा कौन है ? अज्ञानी जीव जड़ का लक्ष करके जड़वत् हो गया है, इसलिये मरते समय अपने को भूलकर, संयोगदृष्टि को लेकर मरता है; असाध्यतया प्रवृत्ति करता है अर्थात् चैतन्यस्वरूप का भान नहीं है । वह जोते जी ही असाध्य ही है । भने शरीर हिले-डुले, बोले-चाले, किन्तु यह तो जड़ की क्रिया है । उसका स्वामी हो गया है। किन्तु अंतरंग में साध्यभूत ज्ञानस्वरूप की जिसे खबर नहीं है वह असाध्य (जीवित मुर्दा ) है । यदि सम्यग्दर्शन पूर्वक ज्ञान से वस्तुस्वभाव को यथार्थ

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