Book Title: Tao Upnishad Part 03 Author(s): Osho Rajnish Publisher: Rebel Publishing House Puna View full book textPage 8
________________ लाओत्से के जीवन-दर्शन में प्रकृति ही परमात्मा है। इस संबंध में ओशो कहते हैं: 'प्रकृति शब्द बहुत कीमती है। प्रकृति का मतलब होता है : बनने के भी पूर्व जो था। दैट व्हिच वाज़ बिफोर क्रिएशन। प्र और कृति, यानी निर्माण के पहले जो था, सब होने के पहले जो था, सब बना उसके पहले जो था। सबके होने के मूल में जो आधार है, वह प्रकृति है। रूप जब मिट जाते हैं, तब जिसमें गिरते हैं और रूप जब उठते हैं, तब जिसमें उठते हैं, वह है प्रकृति। प्रकृति का अर्थ है वह तत्व जो रूप लेने के पहले था। 'लाओत्से कहता है : वही मां है, वही मूल स्रोत है; मैं उसी से जीता हूं। मेरा अपना कोई लक्ष्य नहीं है। उस प्रकृति का कोई लक्ष्य मुझसे हो तो पूरा हो जाए, न हो तो कोई एतराज नहीं है।' लाओत्से की अंतर्दृष्टि के अनुसार प्राकृतिक होना यानी अपनी जड़ों से संयुक्त होना है। ओशो इस अंतर्दृष्टि को समझाते हुए कहते हैं कि 'लाओत्से कहता है: खोपड़ी की फिक्र छोड़ो, नाभि की फिक्र करो। नाभि मजबूत हो, जड़ें गहरी हों प्रकृति में, तो तुम कहीं पहुंचे या न पहुंचे, इससे फर्क नहीं पड़ता। पहुंचे तो, न पहुंचे तो, हर हालत में आनंद है। और अगर तुम मस्तिष्क से जीए, पहुंचे तो, न पहुंचे तो, हर हालत में दुख है। इसलिए वह कहता है, एक अकेला मैं भिन्न हूं अन्यों से, क्योंकि देता हूं मूल्य उस पोषण को जो मिलता है सीधा माता प्रकृति से।" ताओ उपनिषद अपने ही निकट होने का, अपनी ही प्रकृति में लौटने का, स्वस्थ होने का, सहज होने का निमंत्रण है। और प्रज्ञापुरुष ओशो के शब्दों में यह निमंत्रण और भी मधुर और रसपूर्ण हो गया है। ताओ के मधुर फलों का रसास्वादन करें और स्वस्थ हों। स्वामी चैतन्य कीर्ति संपादकः ओशो टाइम्स इंटरनेशनलPage Navigation
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